गोलकनाथ केस (1967) | Golaknath Case vs State of Punjab

भारतीय संविधान के इतिहास में, **गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967)** का मुकदमा एक मील का पत्थर है। यह वह ऐतिहासिक क्षण था जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक अभूतपूर्व फैसला सुनाते हुए यह घोषित किया कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति तो है, लेकिन वह **मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights)** को छीन या कम नहीं कर सकती।

यह फैसला न्यायपालिका और संसद के बीच शक्तियों के संतुलन को लेकर चली आ रही एक लंबी बहस का चरम बिंदु था। हालांकि इस फैसले को बाद में केशवानंद भारती केस (1973) में पलट दिया गया, लेकिन इसी केस ने उस वैचारिक भूमि को तैयार किया, जिस पर 'संविधान की मूल संरचना' (Basic Structure Doctrine) जैसे क्रांतिकारी सिद्धांत का जन्म हुआ।

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य केस 1967

गोलकनाथ केस क्या था? (पृष्ठभूमि)

इस केस के केंद्र में पंजाब के दो भाई, हेनरी और विलियम गोलकनाथ थे। उनके परिवार के पास जालंधर में 500 एकड़ से अधिक कृषि भूमि थी। 1953 में, पंजाब सरकार ने पंजाब सिक्योरिटी ऑफ लैंड टेन्योर्स एक्ट, 1953 (Punjab Security of Land Tenures Act, 1953) लागू किया। इस कानून के तहत, सरकार ने गोलकनाथ परिवार की अधिकांश भूमि को 'अधिशेष' (surplus) घोषित कर दिया और उसे अधिग्रहित कर लिया, ताकि उसे भूमिहीन किसानों में बांटा जा सके।

गोलकनाथ परिवार ने इस अधिग्रहण को अदालत में चुनौती दी। उनकी दलील थी कि यह कानून उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, विशेष रूप से:

  • अनुच्छेद 19(1)(f): संपत्ति अर्जित करने, रखने और बेचने का अधिकार (अब निरस्त)।
  • अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता का अधिकार।

लेकिन यहाँ एक कानूनी पेंच था। सरकार के भूमि सुधार कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाने के लिए उन्हें पहले संविधान संशोधन (1951) द्वारा बनाई गई **नौवीं अनुसूची (Ninth Schedule)** में डाल दिया गया था। इसके अतिरिक्त, 17वें संविधान संशोधन (1964) ने भी भूमि सुधारों को और मजबूती दी थी।

इसलिए, गोलकनाथ के वकीलों ने सिर्फ भूमि सुधार कानून को ही नहीं, बल्कि उन संविधान संशोधनों (17वें संशोधन) को ही चुनौती दे दी, जो मौलिक अधिकारों को सीमित करते थे।

यह केस अब केवल भूमि विवाद नहीं रह गया था। यह एक मौलिक संवैधानिक प्रश्न बन गया: क्या संसद की संविधान संशोधन की शक्ति इतनी असीमित है कि वह नागरिकों के मौलिक अधिकारों को भी छीन सकती है?

विवाद की जड़: अनुच्छेद 13 बनाम अनुच्छेद 368

इस पूरे विवाद के केंद्र में संविधान के दो महत्वपूर्ण अनुच्छेद थे:

  1. अनुच्छेद 13(2): यह अनुच्छेद कहता है, "राज्य कोई ऐसा 'कानून' (law) नहीं बनाएगा जो भाग III (मौलिक अधिकार) द्वारा दिए गए अधिकारों को छीनता या कम करता हो।"
  2. अनुच्छेद 368: यह अनुच्छेद संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया का वर्णन करता है।

मुख्य कानूनी सवाल यह था: क्या अनुच्छेद 368 के तहत किया गया 'संविधान संशोधन' भी अनुच्छेद 13(2) के तहत एक 'कानून' माना जाएगा?

  • अगर 'हाँ', तो संसद मौलिक अधिकारों को संशोधित नहीं कर सकती।
  • अगर 'नहीं', तो संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी हिस्से को बदल सकती है।

गोलकनाथ से पहले के महत्वपूर्ण निर्णय

गोलकनाथ केस (1967) से पहले, सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर दो बार अपना रुख स्पष्ट कर चुका था, और दोनों बार संसद के पक्ष में।

शंकरी प्रसाद केस (1951)

शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ (1951) में, पहले संविधान संशोधन को चुनौती दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि:

  • अनुच्छेद 368 के तहत 'संशोधन' और अनुच्छेद 13 के तहत 'कानून' दो अलग-अलग चीजें हैं।
  • इसलिए, संसद के पास मौलिक अधिकारों में भी संशोधन करने की शक्ति है।

सज्जन सिंह केस (1965)

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1965) में, 17वें संविधान संशोधन को चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने 3-2 के बहुमत से शंकरी प्रसाद के फैसले को बरकरार रखा और संसद की शक्ति को फिर से स्थापित किया।

हालांकि, इस केस में दो असहमति वाले न्यायाधीशों (न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला और न्यायमूर्ति मुधोलकर) ने पहली बार यह शंका जताई कि क्या संसद को वास्तव में मौलिक अधिकारों को बदलने की असीमित शक्ति दी जानी चाहिए। न्यायमूर्ति मुधोलकर ने यहां तक संकेत दिया कि संविधान में कुछ "बुनियादी विशेषताएं" (basic features) हो सकती हैं जिन्हें बदला नहीं जाना चाहिए। यह पहली बार था कि 'मूल संरचना' के विचार का बीज बोया गया था।

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला (1967)

जब 1967 में गोलकनाथ केस सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, तो इस गंभीर संवैधानिक प्रश्न को हल करने के लिए उस समय तक की सबसे बड़ी 11-न्यायाधीशों की पीठ का गठन किया गया।

27 फरवरी 1967 को, पीठ ने 6-5 के मामूली बहुमत से एक ऐसा फैसला सुनाया, जिसने भारतीय राजनीति और कानून में भूचाल ला दिया। मुख्य न्यायाधीश के. सुब्बा राव (C.J. K. Subba Rao) ने बहुमत का फैसला लिखा।

निर्णय के मुख्य बिंदु (6-5 बहुमत)

सुप्रीम कोर्ट ने शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह के अपने पुराने फैसलों को पलट दिया।

  1. मौलिक अधिकार 'पारलौकिक और अपरिवर्तनीय' हैं: कोर्ट ने माना कि मौलिक अधिकारों को संविधान में एक "पारलौकिक और अपरिवर्तनीय" (transcendental and immutable) स्थान दिया गया है। ये अधिकार संविधान की आत्मा हैं और इन्हें संसद की इच्छा पर नहीं छोड़ा जा सकता।
  2. संशोधन भी एक 'कानून' है: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 368 के तहत किया गया 'संशोधन' भी अनुच्छेद 13(2) के अर्थ में एक 'कानून' है।
  3. संसद मौलिक अधिकारों को नहीं छीन सकती: क्योंकि संशोधन एक 'कानून' है, इसलिए संसद ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती जो मौलिक अधिकारों को छीनता या कम करता हो।
  4. अनुच्छेद 368 केवल प्रक्रिया है: कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 368 केवल संशोधन की 'प्रक्रिया' बताता है, यह संसद को संशोधन करने की 'असीमित शक्ति' नहीं देता है।

अल्पमत का दृष्टिकोण

पांच असहमति वाले न्यायाधीशों ने माना कि संसद को संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन करने की शक्ति होनी चाहिए, जैसा कि शंकरी प्रसाद केस में कहा गया था। उनका तर्क था कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज है और इसे बदलती जरूरतों के अनुसार ढलने में सक्षम होना चाहिए, अन्यथा यह स्थिर हो जाएगा।

एक नया सिद्धांत: 'भविष्यलक्षी प्रभाव' (Prospective Overruling)

इस फैसले ने सुप्रीम कोर्ट के सामने एक बड़ी व्यावहारिक समस्या खड़ी कर दी। अगर संसद मौलिक अधिकारों को संशोधित नहीं कर सकती थी, तो इसका मतलब यह हुआ कि 1951 से (पहला संशोधन, चौथा संशोधन, 17वां संशोधन) किए गए सभी संशोधन अमान्य हो जाने चाहिए। इससे देश में अराजकता फैल जाती, क्योंकि अब तक हुए सभी भूमि सुधार और अन्य सामाजिक कानून रद्द हो जाते।

इस अराजकता से बचने के लिए, मुख्य न्यायाधीश सुब्बा राव ने अमेरिकी कानून से 'डॉक्ट्रिन ऑफ प्रॉस्पेक्टिव ओवररूलिंग' (भविष्यलक्षी प्रभाव का सिद्धांत) को भारतीय कानून में पेश किया।

इसका मतलब था:

  • यह फैसला (कि संसद FRs को नहीं बदल सकती) केवल भविष्य में होने वाले संशोधनों पर लागू होगा।
  • जो संशोधन इस फैसले की तारीख (27 फरवरी 1967) से पहले हो चुके हैं (जैसे पहला, चौथा और 17वां संशोधन), वे मान्य बने रहेंगे।

इस प्रकार, गोलकनाथ परिवार केस तो हार गया (क्योंकि 17वां संशोधन वैध रहा), लेकिन उन्होंने एक ऐसा सिद्धांत स्थापित करवा दिया जिसने संविधान की दिशा बदल दी।

गोलकनाथ केस का प्रभाव और संसद की प्रतिक्रिया

गोलकनाथ केस का फैसला तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के लिए एक बड़ा झटका था, जो 'गरीबी हटाओ' और समाजवादी नीतियों (जैसे बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स की समाप्ति) को लागू करने के लिए संविधान संशोधन का उपयोग करना चाहती थी।

इस फैसले ने संसद और न्यायपालिका के बीच सीधे टकराव की स्थिति पैदा कर दी। संसद ने इसे अपनी "संप्रभुता" पर हमले के रूप में देखा।

24वां संविधान संशोधन (1971)

1971 में, इंदिरा गांधी की सरकार ने भारी बहुमत से चुनाव जीतने के बाद, गोलकनाथ फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए 24वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 पारित किया।

इस संशोधन ने दो बड़े बदलाव किए:

  1. अनुच्छेद 13 में खंड (4) जोड़ा: इसमें स्पष्ट लिखा गया कि "इस अनुच्छेद की कोई भी बात अनुच्छेद 368 के तहत किए गए किसी भी संविधान संशोधन पर लागू नहीं होगी।" (यानी, संशोधन को 'कानून' नहीं माना जाएगा)।
  2. अनुच्छेद 368 का शीर्षक बदला: शीर्षक "संशोधन की प्रक्रिया" से बदलकर "संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसकी प्रक्रिया" कर दिया गया।

इस संशोधन के माध्यम से, संसद ने यह घोषणा कर दी कि उसके पास मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने की असीमित शक्ति है।

मूल संरचना सिद्धांत का उदय (केशवानंद भारती केस)

संसद की इसी असीमित शक्ति को चुनौती दी गई, जिसने भारतीय इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण मुकदमे को जन्म दिया: केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)

13-न्यायाधीशों की पीठ ने 7-6 के ऐतिहासिक बहुमत से फैसला सुनाया:

  1. गोलकनाथ केस को पलटा: कोर्ट ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है (24वां संशोधन वैध है)।
  2. लेकिन... एक सीमा लगाई: कोर्ट ने "मूल संरचना सिद्धांत" (Basic Structure Doctrine) को प्रतिपादित किया। इसका मतलब था कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन वह संविधान की "मूल संरचना" या "बुनियादी ढांचे" (जैसे लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, न्यायिक समीक्षा, शक्तियों का पृथक्करण) को नष्ट नहीं कर सकती।

गोलकनाथ केस की विरासत

हालांकि गोलकनाथ केस का मुख्य फैसला (कि FRs को छुआ नहीं जा सकता) केवल 6 साल (1967-1973) तक ही लागू रहा, लेकिन इसकी विरासत बहुत गहरी है।

  • इसने पहली बार न्यायपालिका को संसद की संशोधन शक्ति पर एक निर्णायक ब्रेक लगाने के लिए प्रेरित किया।
  • इसने मौलिक अधिकारों को संविधान के केंद्र में ला दिया और उन्हें "संसद की इच्छा का खिलौना" बनने से बचाया।
  • यदि गोलकनाथ केस ने संसद पर पूर्ण रोक नहीं लगाई होती, तो शायद केशवानंद भारती केस में "मूल संरचना" का संतुलित सिद्धांत कभी सामने नहीं आता।

गोलकनाथ केस वह "चेतावनी" थी, जिसने न्यायपालिका को मजबूर किया कि वह संसद की शक्ति पर लगाम लगाने का एक स्थायी और संतुलित तरीका खोजे, जो केशवानंद भारती केस में "मूल संरचना" के रूप में मिला।

प्रमुख विचार

न्यायमूर्ति के. सुब्बा राव (मुख्य न्यायाधीश, गोलकनाथ केस): “मौलिक अधिकार हमारी संविधानिक योजना में एक पारलौकिक और अपरिवर्तनीय स्थान रखते हैं।”

नानी पालकीवाला (प्रसिद्ध विधिवेत्ता): “गोलकनाथ केस ने संसद के लिए एक स्पष्ट 'लक्ष्मण रेखा' खींचने का प्रयास किया। यद्यपि वह रेखा बाद में मिटी, लेकिन इसने उस बहस को जन्म दिया जिसने अंततः संविधान की आत्मा को बचाया।”

FAQ - अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

प्रश्न 1: गोलकनाथ केस (1967) का मुख्य फैसला क्या था?

उत्तर: गोलकनाथ केस का मुख्य फैसला यह था कि संसद, संविधान संशोधन (अनुच्छेद 368) के जरिए भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों (संविधान के भाग III) को छीन या कम नहीं कर सकती।

प्रश्न 2: क्या गोलकनाथ केस का फैसला आज भी लागू है?

उत्तर: नहीं। गोलकनाथ केस के फैसले को 1973 में केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट की 13-न्यायाधीशों की पीठ ने पलट दिया था।

प्रश्न 3: 'भविष्यलक्षी प्रभाव' (Prospective Overruling) क्या है जो इस केस में इस्तेमाल हुआ?

उत्तर: यह एक कानूनी सिद्धांत है जिसका अर्थ है कि अदालत का फैसला केवल भविष्य के मामलों पर लागू होगा, अतीत पर नहीं। गोलकनाथ केस में इसका इस्तेमाल इसलिए किया गया ताकि 1967 से पहले के संविधान संशोधन (जैसे भूमि सुधार कानून) अमान्य न हों और देश में कानूनी अराजकता न फैले।

प्रश्न 4: गोलकनाथ केस और केशवानंद भारती केस में क्या संबंध है?

उत्तर: गोलकनाथ केस ने संसद की शक्ति पर 'पूर्ण रोक' लगा दी। इस रोक को हटाने के लिए संसद 24वां संशोधन लाई। इसी 24वें संशोधन को केशवानंद भारती केस में चुनौती दी गई, जहाँ कोर्ट ने 'बीच का रास्ता' निकाला, जिसे "मूल संरचना सिद्धांत" कहते हैं। गोलकनाथ वह केस था जिसने इस टकराव को चरम पर पहुंचाया, और केशवानंद वह केस था जिसने इसका स्थायी समाधान दिया।

निष्कर्ष

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य का मामला भारतीय संविधान के विकास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। यह संविधान की सर्वोच्चता और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायपालिका के दृढ़ संकल्प का प्रतीक है। भले ही इस फैसले को बाद में संशोधित कर दिया गया, लेकिन इसने उस 'मूल संरचना सिद्धांत' की नींव रखी, जो आज भी भारत के लोकतंत्र और संविधान का अंतिम रक्षक बना हुआ है।

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