17वां संशोधन (1964): भूमि सुधार | 17th Amendment

भारतीय संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है, जिसे समय और समाज की ज़रूरतों के अनुसार ढाला गया है। इसी क्रम में 17वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1964 भारतीय संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, विशेषकर भूमि सुधार और संपत्ति के अधिकार के संदर्भ में। यह संशोधन उस दौर में लाया गया जब भारत सरकार ज़मींदारी उन्मूलन और भूमि के समान वितरण जैसे सामाजिक न्याय के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रही थी, और न्यायपालिका के फ़ैसले इन सुधारों के रास्ते में बाधा बन रहे थे।

                                                

17वां संविधान संशोधन अधिनियम

                                          

पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक संदर्भ (Historical Background & Context)

आज़ादी के बाद भारत सरकार का एक प्रमुख लक्ष्य था भूमि सुधारों को लागू करना ताकि कृषि भूमि का न्यायपूर्ण वितरण हो सके और ज़मींदारी जैसी शोषणकारी प्रथाओं को समाप्त किया जा सके। इस उद्देश्य के लिए, संविधान के अनुच्छेद 31A और 31B को पहले संशोधन (1951) के माध्यम से जोड़ा गया और नौवीं अनुसूची बनाई गई। इसका उद्देश्य भूमि सुधार कानूनों को मौलिक अधिकारों (विशेषकर अनुच्छेद 14, 19 और 31) के उल्लंघन के आधार पर अदालत में चुनौती दिए जाने से बचाना था।

हालांकि, कई अदालती फ़ैसलों में इन प्रावधानों की व्याख्या इस तरह से की गई कि सरकारों के लिए भूमि सुधारों को आगे बढ़ाना मुश्किल हो गया। सुप्रीम कोर्ट ने 'एस्टेट' (Estate) शब्द की संकीर्ण व्याख्या की, जिससे रैयतवाड़ी व्यवस्था के तहत आने वाली ज़मीनें इसके दायरे से बाहर हो गईं। केरल और मद्रास के उच्च न्यायालयों ने कई भूमि सुधार अधिनियमों को इस आधार पर रद्द कर दिया कि वे संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं। इन्हीं न्यायिक बाधाओं को दूर करने और भूमि सुधारों को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करने के लिए 17वें संशोधन की आवश्यकता महसूस हुई।

प्रस्ताव और पारित होने की प्रक्रिया (Proposal & Passage Process)

17वें संविधान संशोधन विधेयक को संसद में पेश किया गया ताकि भूमि सुधारों को लेकर उत्पन्न हो रही कानूनी अनिश्चितता को समाप्त किया जा सके। यह विधेयक संसद के दोनों सदनों में गहन बहस के बाद पारित हुआ।

       
  • लोकसभा में पारित: इस विधेयक को लोकसभा द्वारा पारित किया गया।
  •    
  • राज्यसभा में पारित: इसके बाद इसे राज्यसभा की स्वीकृति मिली।
  •    
  • राष्ट्रपति की स्वीकृति: तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने 20 जून, 1964 को इस पर अपनी सहमति दी।
  •    
  • अधिनियम संख्या: यह संविधान (सत्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1964 (**Act No. 24 of 1964**) के रूप में कानून बना।

संशोधन के प्रमुख प्रावधान (Key Provisions of the Amendment)

17वें संविधान संशोधन ने मुख्य रूप से दो महत्वपूर्ण बदलाव किए:

       
  1.        

    अनुच्छेद 31A में 'एस्टेट' की परिभाषा का विस्तार: इस संशोधन ने अनुच्छेद 31A(2)(a) में 'एस्टेट' शब्द की परिभाषा को व्यापक बनाया। अब इसमें शामिल किया गया:

           
                 
    • रैयतवाड़ी बंदोबस्त के तहत आने वाली कोई भी भूमि।
    •            
    • ऐसी कोई भी भूमि जो स्थानीय क्षेत्र में कृषि उद्देश्यों या उसके सहायक उद्देश्यों के लिए धारित या पट्टे पर दी गई हो, जिसमें बंजर भूमि, वन भूमि, चरागाह या भवनों और अन्य संरचनाओं के स्थल शामिल हैं।
    •        
           

    इस बदलाव का सीधा मतलब था कि अब लगभग सभी प्रकार की कृषि भूमि से संबंधित कानूनों को अनुच्छेद 14, 19 और 31 के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती थी।

       
  2.    
  3.        

    नौवीं अनुसूची (Ninth Schedule) का विस्तार: इस संशोधन ने नौवीं अनुसूची में 44 अतिरिक्त राज्य अधिनियमों को जोड़ा, जिससे इस सूची में शामिल अधिनियमों की कुल संख्या 20 से बढ़कर 64 हो गई। नौवीं अनुसूची में शामिल किसी भी कानून को इस आधार पर शून्य नहीं माना जा सकता कि वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। यह एक तरह का "संवैधानिक सुरक्षा कवच" था।

       
  4.    
  5.        

    मुआवज़े का प्रावधान: संशोधन में एक नया परंतुक (proviso) जोड़ा गया, जिसमें यह सुनिश्चित किया गया कि यदि सरकार किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत खेती के तहत आने वाली भूमि का अधिग्रहण करती है (जो कानून द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर है), तो उसे बाज़ार मूल्य से कम मुआवज़ा नहीं दिया जाएगा।

       

उद्देश्य और लक्ष्य (Objectives and Legislative Intent)

इस संशोधन को लाने के पीछे सरकार का विधायी इरादा और मुख्य उद्देश्य स्पष्ट थे:

       
  • विभिन्न राज्यों द्वारा पारित भूमि सुधार कानूनों को संवैधानिक वैधता प्रदान करना।
  •    
  • न्यायिक व्याख्याओं के कारण उत्पन्न हो रही कानूनी बाधाओं को दूर करना।
  •    
  • कृषि भूमि के समान वितरण के समाजवादी लक्ष्य को प्राप्त करना।
  •    
  • यह सुनिश्चित करना कि ज़मींदारी उन्मूलन कार्यक्रम पूरी तरह से सफल हो।

प्रभाव और परिणाम (Impact and Outcomes)

17वें संशोधन का भारतीय राजनीति और संविधान पर गहरा प्रभाव पड़ा:

       
  • राजनीतिक प्रभाव: इसने केंद्र और राज्य सरकारों को भूमि सुधारों को बिना किसी कानूनी डर के लागू करने की शक्ति दी।
  •    
  • संवैधानिक प्रभाव: इसने संसद की संविधान संशोधन की शक्ति को और मज़बूत किया और संपत्ति के मौलिक अधिकार को सीमित कर दिया। इसने विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन को विधायिका के पक्ष में झुका दिया।
  •    
  • सामाजिक प्रभाव: इसने लाखों भूमिहीन किसानों और काश्तकारों के पक्ष में भूमि के पुनर्वितरण का मार्ग प्रशस्त किया, जिससे सामाजिक-आर्थिक समानता को बढ़ावा मिला।

न्यायिक व्याख्या, समीक्षा और आलोचना (Judicial Review, Interpretation & Criticism)

इस संशोधन की वैधता को तुरंत अदालत में चुनौती दी गई। सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1965) के मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने यह सवाल आया कि क्या संसद के पास मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति है।

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने 3-2 के बहुमत से 17वें संशोधन की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। हालांकि, दो न्यायाधीशों (न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला और न्यायमूर्ति मुधोलकर) ने अपने असहमतिपूर्ण विचारों में यह सवाल उठाया कि क्या संसद की संशोधन शक्ति असीमित है। इसी असहमति ने भविष्य में गोलकनाथ मामले (1967) की नींव रखी, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने अपने पहले के फैसले को पलट दिया था।

ऐतिहासिक महत्व (Historical Significance)

भारत के संवैधानिक विकास में 17वें संशोधन का एक ऐतिहासिक स्थान है। यह सिर्फ एक कानूनी बदलाव नहीं था, बल्कि भारत के सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की दिशा में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक कदम था। इसने यह स्थापित किया कि सामाजिक न्याय के बड़े लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकारों को सीमित किया जा सकता है। इसने विधायिका और न्यायपालिका के बीच उस लंबी बहस को भी तेज़ कर दिया, जो अंततः केशवानंद भारती मामले (1973) में "संविधान की मूल संरचना" के सिद्धांत के रूप में समाप्त हुई।

सारांश तालिका (Quick Summary Table)

                                                                                                                                                                                                                       
शीर्षकविवरण
संशोधन संख्या17वां संविधान संशोधन अधिनियम
वर्ष1964
अधिनियम संख्या**24 of 1964**
लागू होने की तिथि20 जून, 1964
प्रधानमंत्री**पंडित जवाहरलाल नेहरू (प्रारंभिक) / लाल बहादुर शास्त्री (अंतिम)**
राष्ट्रपतिडॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
मुख्य उद्देश्यभूमि सुधार कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाना और 'एस्टेट' की परिभाषा का विस्तार करना।
प्रमुख बदलावअनुच्छेद 31A में संशोधन और नौवीं अनुसूची में 44 नए अधिनियमों को शामिल करना।

निष्कर्ष (Conclusion)

कुल मिलाकर, 17वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1964 एक साहसिक और आवश्यक कदम था, जिसका उद्देश्य भारत में सामाजिक और आर्थिक न्याय की स्थापना करना था। इसने भूमि सुधारों के रास्ते में आ रही कानूनी बाधाओं को प्रभावी ढंग से दूर किया। हालांकि इसने न्यायपालिका और संसद के बीच टकराव को जन्म दिया, लेकिन अंततः इसने भारतीय संविधान को एक ऐसे दस्तावेज़ के रूप में मज़बूत किया जो केवल राजनीतिक अधिकारों की ही नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक न्याय की भी गारंटी देता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs – SEO Booster Section)

17वां संविधान संशोधन कब पारित हुआ था?

17वां संविधान संशोधन अधिनियम 20 जून, 1964 को राष्ट्रपति की सहमति के बाद लागू हुआ था।

17वें संशोधन का मुख्य उद्देश्य क्या था?

इसका मुख्य उद्देश्य विभिन्न राज्यों द्वारा बनाए गए भूमि सुधार कानूनों को संवैधानिक संरक्षण देना था, ताकि उन्हें अदालतों में मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर चुनौती न दी जा सके।

इस संशोधन द्वारा किन अनुच्छेदों में परिवर्तन हुआ?

इस संशोधन ने मुख्य रूप से अनुच्छेद 31A में 'एस्टेट' की परिभाषा में संशोधन किया और संविधान की नौवीं अनुसूची में 44 नए अधिनियम जोड़े।

17वें संशोधन के समय भारत के प्रधानमंत्री कौन थे?

इस संशोधन की प्रक्रिया पंडित जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में शुरू हुई थी, लेकिन उनके निधन के बाद इसे श्री लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री बनने पर अंतिम रूप दिया गया।

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य का मामला किस संशोधन से संबंधित है?

सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (1965) का ऐतिहासिक मामला सीधे तौर पर 17वें संविधान संशोधन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने से संबंधित है।

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