सहायक संधि क्या थी? | Subsidiary Alliance System in Hindi

19वीं सदी की शुरुआत भारत के इतिहास में एक तूफानी दौर था। मुगल साम्राज्य अपने पतन पर था और मराठा, मैसूर, हैदराबाद जैसी क्षेत्रीय शक्तियाँ आपस में संघर्ष कर रही थीं। इसी राजनीतिक अस्थिरता के बीच, एक ब्रिटिश गवर्नर-जनरल, लॉर्ड वेलेजली (Lord Wellesley), ने एक ऐसी नीति लागू की जिसने चुपके से भारतीय राज्यों की स्वतंत्रता को छीन लिया और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार का मार्ग प्रशस्त किया। इस नीति को "सहायक संधि प्रणाली" (Subsidiary Alliance System) के नाम से जाना जाता है।

सहायक संधि प्रणाली (1802-1810)

यह लेख विशेष रूप से 1802 से 1810 के महत्वपूर्ण कालखंड पर केंद्रित है, क्योंकि यही वह समय था जब इस प्रणाली का सबसे आक्रामक रूप से उपयोग किया गया, जिसने शक्तिशाली मराठा संघ को घुटनों पर ला दिया। आइए विस्तार से समझते हैं कि यह सहायक संधि क्या थी, इसकी विशेषताएं क्या थीं, और 1802-1810 के दौरान इसने भारतीय इतिहास की दिशा कैसे बदल दी।

विषय सूची (Table of Contents)

सहायक संधि प्रणाली क्या थी? (What was the Subsidiary Alliance System?)

सरल शब्दों में, सहायक संधि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और भारतीय रियासतों के बीच एक "संधि" या समझौता था। कागजों पर, यह एक रक्षात्मक गठबंधन लगता था। कंपनी भारतीय राज्य को बाहरी आक्रमणों और आंतरिक विद्रोहों से बचाने के लिए अपनी सेना (एक "सहायक" सेना) उस राज्य में तैनात करने का वादा करती थी।

लेकिन, इस "सुरक्षा" की एक भारी कीमत थी। यह एक ऐसा जाल था जिसे 'संरक्षण' (Protection) का चारा डालकर बिछाया गया था, लेकिन इसका असली मकसद राज्य की स्वायत्तता को समाप्त करना था। जो भी राज्य इस संधि पर हस्ताक्षर करता था, वह अपनी स्वतंत्रता, विशेषकर अपनी विदेश नीति और सैन्य अधिकारों को खो देता था। यह प्रणाली भारतीय राज्यों को धीरे-धीरे कमजोर करने और उन्हें ब्रिटिश नियंत्रण में लाने का एक चतुराई भरा तरीका था।

सहायक संधि प्रणाली का जनक: लॉर्ड वेलेजली

हालांकि सहायक संधि का विचार मूल रूप से फ्रांसीसी गवर्नर डुप्लेक्स (Dupleix) का माना जाता है, लेकिन इसे एक आक्रामक साम्राज्यवादी उपकरण के रूप में विकसित और कार्यान्वित करने का श्रेय लॉर्ड रिचर्ड वेलेजली (Lord Richard Wellesley) को जाता है, जो 1798 से 1805 तक भारत के गवर्नर-जनरल रहे।

वेलेजली का एकमात्र लक्ष्य भारत में फ्रांसीसी प्रभाव को पूरी तरह से समाप्त करना और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत की सर्वोच्च शक्ति बनाना था। सहायक संधि इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसका सबसे प्रभावी हथियार बनी। उसने भारतीय शासकों को 'या तो संधि स्वीकार करने या युद्ध का सामना करने' की सीधी धमकी दी।

सहायक संधि की मुख्य विशेषताएं (Key Features of Subsidiary Alliance)

सहायक संधि के प्रावधानों को बहुत चालाकी से तैयार किया गया था ताकि भारतीय राज्य पूरी तरह से अंग्रेजों पर निर्भर हो जाएं। इसकी मुख्य शर्तें निम्नलिखित थीं:

1. ब्रिटिश सेना की तैनाती

संधि पर हस्ताक्षर करने वाले भारतीय शासक को अपने राज्य की "सुरक्षा" के लिए एक ब्रिटिश सैन्य टुकड़ी (Subsidiary Force) को अपने क्षेत्र में स्थायी रूप से रखना पड़ता था।

2. सेना का रखरखाव (असली जाल)

इस ब्रिटिश सेना के रखरखाव का सारा खर्च भारतीय शासक को ही उठाना पड़ता था। यह खर्च इतना अधिक होता था कि ज्यादातर राज्य इसे नकद (सब्सिडी) में चुका नहीं पाते थे।

3. क्षेत्र का समर्पण

जब कोई शासक नकद सब्सिडी देने में विफल रहता, तो उसे अपनी सेना के खर्च के बदले में अपने राज्य का एक बड़ा और उपजाऊ हिस्सा कंपनी को स्थायी रूप से सौंपना पड़ता था। (जैसा कि 1801 में अवध के साथ हुआ)।

4. ब्रिटिश रेजिडेंट की नियुक्ति

भारतीय शासक को अपने दरबार में एक ब्रिटिश अधिकारी को 'रेजिडेंट' (Resident) के रूप में रखना पड़ता था। कहने को तो यह एक राजनयिक प्रतिनिधि था, लेकिन असल में वह राज्य के आंतरिक प्रशासन में लगातार हस्तक्षेप करता था और शासक की हर गतिविधि पर नजर रखता था।

5. विदेश नीति पर पूर्ण नियंत्रण

यह सबसे अपमानजनक शर्त थी। संधि करने वाला राज्य अंग्रेजों की अनुमति के बिना किसी अन्य भारतीय राज्य या किसी यूरोपीय शक्ति (विशेषकर फ्रांसीसी) के साथ कोई संबंध, युद्ध या समझौता नहीं कर सकता था। इससे राज्य की संप्रभुता (Sovereignty) पूरी तरह समाप्त हो गई।

6. अन्य यूरोपीय लोगों की बर्खास्तगी

शासक को अपनी सेवा में मौजूद सभी गैर-ब्रिटिश यूरोपीय लोगों (जैसे फ्रांसीसी, डच, पुर्तगाली) को तुरंत नौकरी से निकालना पड़ता था, ताकि भारत में फ्रांसीसी प्रभाव का डर खत्म हो सके।

1802-1810 का निर्णायक दौर: मराठों का पतन

1798 से 1801 तक, वेलेजली ने हैदराबाद (1798), मैसूर (1799, टीपू सुल्तान की हार के बाद), तंजौर (1799) और अवध (1801) को इस संधि के जाल में फँसा लिया था। लेकिन भारत की सबसे बड़ी शक्ति - मराठा संघ - अभी भी ब्रिटिश नियंत्रण से बाहर थी। 1802-1810 का दशक इसी मराठा शक्ति को तोड़ने के नाम रहा।

बेसिन की संधि (1802) - एक ऐतिहासिक भूल

मराठा संघ आंतरिक कलह से जूझ रहा था। पेशवा (बाजीराव द्वितीय), सिंधिया, होल्कर और भोंसले जैसे मराठा सरदार आपस में ही लड़ रहे थे। 1802 में, होल्कर ने पेशवा बाजीराव द्वितीय और सिंधिया की संयुक्त सेना को पूना (पुणे) में हरा दिया।

डरकर, पेशवा बाजीराव द्वितीय ने भागकर अंग्रेजों की शरण ली और 31 दिसंबर 1802 को बेसिन की संधि (Treaty of Bassein) पर हस्ताक्षर कर दिए। यह सहायक संधि स्वीकार करने जैसा ही था।

  • पेशवा ने अपने दरबार में ब्रिटिश रेजिडेंट और अपनी सुरक्षा के लिए 6,000 ब्रिटिश सैनिकों को रखना स्वीकार किया।
  • इन सैनिकों के खर्च के लिए उसने लगभग 26 लाख रुपये की आय वाला क्षेत्र कंपनी को सौंप दिया।
  • उसने अपनी विदेश नीति भी अंग्रेजों को सौंप दी।

यह संधि मराठों के लिए एक राष्ट्रीय अपमान थी। मराठा संघ के नाममात्र के मुखिया (पेशवा) ने ही अपनी स्वतंत्रता अंग्रेजों को बेच दी थी। इस संधि ने अनिवार्य रूप से द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध की नींव रखी।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1805)

अन्य मराठा सरदार (सिंधिया और भोंसले) पेशवा द्वारा की गई इस अपमानजनक संधि को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने इसे मराठा स्वतंत्रता पर हमला माना। इसके परिणामस्वरूप 1803 में द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध शुरू हुआ।

वेलेजली इसी मौके का इंतजार कर रहा था। ब्रिटिश सेनाओं ने आर्थर वेलेजली (लॉर्ड वेलेजली के भाई) के नेतृत्व में मराठा सेनाओं को कई लड़ाइयों (जैसे- असाये और लसवारी) में निर्णायक रूप से पराजित किया।

अन्य मराठा संधियाँ (1803 के बाद)

युद्ध में हार के बाद, अन्य मराठा सरदारों को भी सहायक संधि स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा:

  1. देवगाँव की संधि (1803): भोंसले (नागपुर के) ने यह संधि की और कटक और बालासोर सहित बड़ा क्षेत्र खो दिया।
  2. सुर्जी-अर्जुनगाँव की संधि (1803): सिंधिया (ग्वालियर के) ने यह संधि की और गंगा-यमुना दोआब और अहमदनगर का किला अंग्रेजों को सौंप दिया।

हालांकि 1805 में होल्कर के साथ युद्ध में अंग्रेजों को खास सफलता नहीं मिली और वेलेजली को उसकी आक्रामक नीति के कारण वापस इंग्लैंड बुला लिया गया, लेकिन 1802-1805 के बीच उसने मराठा शक्ति की कमर तोड़ दी थी। 1810 तक, अधिकांश भारत या तो सीधे ब्रिटिश शासन में था या सहायक संधि के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से उनके नियंत्रण में आ चुका था।

सहायक संधि स्वीकार करने वाले प्रमुख राज्य (Table)

नीचे दी गई तालिका उन प्रमुख राज्यों को दर्शाती है जिन्होंने वेलेजली की सहायक संधि प्रणाली को स्वीकार किया, जिसने भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व का नक्शा ही बदल दिया।

राज्य का नाम संधि का वर्ष प्रमुख शासक/संदर्भ
हैदराबाद के निज़ाम 1798 (पहली बार), 1800 (स्थायी) सहायक संधि स्वीकार करने वाला पहला भारतीय राज्य।
मैसूर 1799 चौथे आंग्ल-मैसूर युद्ध में टीपू सुल्तान की हार के बाद।
तंजौर 1799 शासक ने राज्य का प्रशासन कंपनी को सौंप दिया।
अवध (Oudh) 1801 नवाब को सब्सिडी के बदले रुहेलखंड और गोरखपुर सहित आधा राज्य सौंपना पड़ा।
पेशवा (मराठा) 1802 बेसिन की संधि (Treaty of Bassein)।
भोंसले (नागपुर के मराठा) 1803 देवगाँव की संधि (द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद)।
सिंधिया (ग्वालियर के मराठा) 1803 सुर्जी-अर्जुनगाँव की संधि (द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद)।
जोधपुर (मारवाड़) 1803 बाद में संधि से हट गया, 1818 में फिर से शामिल हुआ।
जयपुर 1803 -
होल्कर (इंदौर के मराठा) 1818 तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद (मंदसौर की संधि)।

सहायक संधि का भारतीय राज्यों पर विनाशकारी प्रभाव

सहायक संधि प्रणाली भारतीय राज्यों के लिए "मीठा जहर" (Slow Poison) साबित हुई। इसके दूरगामी और विनाशकारी परिणाम हुए:

संप्रभुता और स्वतंत्रता का अंत

यह सबसे बड़ा नुकसान था। राज्यों ने अपनी विदेश नीति और सैन्य स्वायत्तता खो दी। वे अब स्वतंत्र शासक नहीं, बल्कि अंग्रेजों के अधीन 'संरक्षित' जागीरदार बन गए थे। ब्रिटिश रेजिडेंट शासक के निर्णयों में सीधे हस्तक्षेप करता था, जिससे राजा मात्र एक कठपुतली बनकर रह गया।

आर्थिक पतन और भारी वित्तीय बोझ

ब्रिटिश सेना के रखरखाव के लिए दी जाने वाली सब्सिडी (नकद राशि) बहुत अधिक थी, जो राज्य की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ देती थी। किसानों पर करों का बोझ बढ़ गया। जब राज्य पैसे नहीं दे पाते, तो उन्हें अपना सबसे उपजाऊ क्षेत्र अंग्रेजों को सौंपना पड़ता था, जिससे उनकी बची-खुची आय भी समाप्त हो जाती थी।

देशी सेनाओं का विघटन और बेरोजगारी

चूंकि अब राज्य की सुरक्षा का जिम्मा ब्रिटिश सेना पर था, इसलिए भारतीय शासकों को अपनी सेनाओं को भंग करने के लिए मजबूर किया गया। इससे लाखों देशी सैनिक बेरोजगार हो गए। ये बेरोजगार सैनिक अक्सर 'पिंडारी' (लुटेरों के गिरोह) बन गए, जिससे कानून और व्यवस्था की एक नई समस्या पैदा हो गई।

शासकों का पतन और आंतरिक विद्रोह

जब शासकों को बाहरी आक्रमण या आंतरिक विद्रोह का डर नहीं रहा (क्योंकि अंग्रेज उन्हें बचाने के लिए थे), तो वे गैर-जिम्मेदार, आलसी और विलासी हो गए। उन्होंने प्रजा के कल्याण पर ध्यान देना बंद कर दिया। इससे प्रशासन ठप्प हो गया और जनता में असंतोष बढ़ गया।

अंग्रेजों के लिए सहायक संधि के लाभ (गुण)

जहाँ यह प्रणाली भारतीयों के लिए विनाशकारी थी, वहीं अंग्रेजों के लिए यह अत्यधिक लाभदायक साबित हुई:

  • विशाल सेना का रखरखाव: अंग्रेजों ने भारतीय राज्यों के खर्चे पर एक विशाल सेना तैयार कर ली, जिसका उपयोग वे न केवल भारत में बल्कि भारत के बाहर (जैसे- नेपोलियन के खिलाफ) भी कर सकते थे।
  • फ्रांसीसी प्रभाव का अंत: इस प्रणाली ने भारत से फ्रांसीसी प्रभाव को जड़ से खत्म कर दिया, जो वेलेजली का मुख्य उद्देश्य था।
  • साम्राज्य का विस्तार: कंपनी को सब्सिडी के बदले में रणनीतिक और उपजाऊ क्षेत्र प्राप्त हुए, जिससे उनका प्रत्यक्ष शासन क्षेत्र बढ़ता गया।
  • राजनीतिक नियंत्रण: बिना सीधे युद्ध लड़े, अंग्रेजों ने अधिकांश भारत पर अपना राजनीतिक दबदबा कायम कर लिया।

निष्कर्ष: एक साम्राज्यवादी 'मास्टरस्ट्रोक'

सहायक संधि प्रणाली, विशेष रूप से 1802 से 1810 के दौरान, भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार का सबसे शक्तिशाली और धूर्ततापूर्ण उपकरण थी। लॉर्ड वेलेजली ने भारतीय शासकों की आपसी फूट और कमजोरी का फायदा उठाकर उन्हें 'सुरक्षा' के नाम पर 'गुलामी' की जंजीरों में जकड़ दिया।

1802 की बेसिन की संधि इस युग का महत्वपूर्ण मोड़ थी, जिसने मराठा साम्राज्य के पतन की शुरुआत की। 1810 तक, ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में एक व्यापारिक शक्ति से बढ़कर भारत की सर्वोच्च राजनीतिक शक्ति (Paramount Power) बन चुकी थी, और इस बदलाव की नींव सहायक संधि प्रणाली ने ही रखी थी।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

प्रश्न 1: सहायक संधि प्रणाली का जनक कौन था?
उत्तर: सहायक संधि प्रणाली को भारत में एक आक्रामक नीति के रूप में लागू करने का श्रेय गवर्नर-जनरल लॉर्ड वेलेजली (1798-1805) को दिया जाता है। हालांकि, इसका मूल विचार फ्रांसीसी गवर्नर डुप्लेक्स का था।

प्रश्न 2: सहायक संधि स्वीकार करने वाला पहला भारतीय राज्य कौन सा था?
उत्तर: 1798 में हैदराबाद के निज़ाम ने सबसे पहले सहायक संधि को स्वीकार किया था।

प्रश्न 3: बेसिन की संधि (1802) क्या थी?
उत्तर: यह 31 दिसंबर 1802 को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय के बीच हुई एक संधि थी। इस संधि के द्वारा पेशवा ने सहायक संधि प्रणाली को स्वीकार कर लिया, जिसने द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध को जन्म दिया।

प्रश्न 4: सहायक संधि का भारतीय राज्यों पर सबसे बुरा प्रभाव क्या पड़ा?
उत्तर: सबसे बुरा प्रभाव उनकी संप्रभुता (स्वतंत्रता) का समाप्त होना और भारी वित्तीय बोझ के कारण राज्य का आर्थिक पतन था।

प्रश्न 5: क्या 1805 में वेलेजली के जाने के बाद यह नीति समाप्त हो गई?
उत्तर: नहीं। वेलेजली के बाद कुछ समय के लिए 'अहस्तक्षेप की नीति' अपनाई गई, लेकिन सहायक संधि का ढांचा बना रहा। बाद में लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823) ने इसे और मजबूती से लागू किया और मराठा संघ को पूरी तरह समाप्त कर दिया।

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