भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में, 1942 एक निर्णायक वर्ष था। पूरी दुनिया द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) की आग में झुलस रही थी और भारत में स्वतंत्रता की मांग अपने चरम पर थी। इसी उथल-पुथल के बीच, मार्च 1942 में ब्रिटिश सरकार ने सर स्टैफर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में एक मिशन भारत भेजा, जिसे 'क्रिप्स मिशन' (Cripps Mission 1942) के नाम से जाना जाता है।
यह मिशन ब्रिटिश सरकार द्वारा युद्ध में भारत का सक्रिय सहयोग प्राप्त करने का एक गंभीर, लेकिन अंतिम प्रयास था। ब्रिटिश साम्राज्य पर चौतरफा दबाव था - एक ओर जापानी सेना भारत के दरवाजे पर दस्तक दे रही थी, तो दूसरी ओर अमेरिका और चीन जैसे मित्र राष्ट्र भारत को शामिल करने के लिए दबाव डाल रहे थे। क्या यह मिशन भारत को एकजुट कर सका? या यह स्वतंत्रता संग्राम की आग में घी डालने का काम कर गया? इस लेख में हम क्रिप्स मिशन की पृष्ठभूमि, इसके प्रस्तावों, भारतीय नेताओं की प्रतिक्रियाओं, और इसकी असफलता के कारणों और परिणामों का गहराई से विश्लेषण करेंगे।
सामग्री सूची (Table of Contents)
- प्रस्तावना (Introduction)
- क्रिप्स मिशन की विस्तृत पृष्ठभूमि (Detailed Background)
- मिशन भेजने के तत्कालीन कारण (Immediate Reasons for the Mission)
- नेतृत्व: सर स्टैफर्ड क्रिप्स ही क्यों? (Leadership: Why Sir Stafford Cripps?)
- क्रिप्स प्रस्ताव के मुख्य बिंदु (Main Proposals of Cripps Mission)
- प्रस्तावों का छिपा अर्थ और विश्लेषण (Hidden Meaning & Analysis)
- भारतीय दलों की विस्तृत प्रतिक्रिया (Detailed Reaction of Indian Parties)
- क्रिप्स मिशन क्यों असफल हुआ? (Why did the Cripps Mission Fail?)
- "पोस्ट-डेटेड चेक" का सच (The Truth of the "Post-Dated Cheque")
- परिणाम और दीर्घकालिक प्रभाव (Consequences & Impact)
- निष्कर्ष (Conclusion)
- FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)
क्रिप्स मिशन की विस्तृत पृष्ठभूमि (Detailed Background)
क्रिप्स मिशन को समझने के लिए, हमें 1939 से 1942 के बीच की घटनाओं को समझना होगा। 1939 में जब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ, तब भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने भारतीय विधानमंडलों से परामर्श किए बिना भारत को युद्ध में झोंक दिया। इस एकतरफा निर्णय के विरोध में कांग्रेस के सभी प्रांतीय मंत्रिमंडलों ने इस्तीफा दे दिया, जिससे एक बड़ा राजनीतिक संकट पैदा हो गया।
ब्रिटिश सरकार को युद्ध के लिए भारतीय संसाधनों और सेना की सख्त जरूरत थी। भारतीयों को मनाने के लिए, 1940 में अगस्त प्रस्ताव (August Offer) पेश किया गया, जिसमें युद्ध के बाद 'डोमिनियन स्टेटस' और संविधान सभा बनाने की बात कही गई थी। लेकिन कांग्रेस ने इसे सिरे से खारिज कर दिया क्योंकि इसमें तत्काल स्वतंत्रता की कोई बात नहीं थी। इसके जवाब में, कांग्रेस ने 'व्यक्तिगत सत्याग्रह' शुरू कर दिया।
मिशन भेजने के तत्कालीन कारण (Immediate Reasons for the Mission)
1942 की शुरुआत तक, ब्रिटेन की स्थिति युद्ध में बेहद नाजुक हो गई थी।
- जापान का बढ़ता खतरा: जापानी सेना 'अजेय' मानी जाने वाली ब्रिटिश सेना को हराते हुए दक्षिण-पूर्व एशिया में तेजी से आगे बढ़ रही थी। सिंगापुर, मलाया और बर्मा (म्यांमार) पर जापान का कब्ज़ा हो गया था। जापानी नौसेना बंगाल की खाड़ी तक पहुँच गई थी और भारत पर सीधा हमला लगभग तय माना जा रहा था।
- अंतर्राष्ट्रीय दबाव: ब्रिटेन के सहयोगी देश, विशेष रूप से अमेरिका (राष्ट्रपति रूजवेल्ट) और चीन (चांग काई-शेक), ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल पर लगातार दबाव डाल रहे थे कि वे भारत की मांगों को सुनें और उन्हें युद्ध में एक सक्रिय भागीदार बनाएँ। वे जानते थे कि जापान को रोकने के लिए भारतीयों का सहयोग अनिवार्य है।
- भारत में आंतरिक स्थिति: कांग्रेस के इस्तीफे के बाद से भारत में राजनीतिक गतिरोध बना हुआ था। सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज की गतिविधियाँ भी अंग्रेजों के लिए चिंता का विषय थीं।
इन सभी कारणों ने मिलकर चर्चिल को, जो स्वयं भारतीय स्वतंत्रता के घोर विरोधी थे, भारत में एक मिशन भेजने के लिए मजबूर कर दिया।
नेतृत्व: सर स्टैफर्ड क्रिप्स ही क्यों? (Leadership: Why Sir Stafford Cripps?)
इस मिशन के लिए सर स्टैफर्ड क्रिप्स का चयन एक सोची-समझी रणनीति थी। क्रिप्स ब्रिटिश सरकार में लेबर पार्टी के एक वरिष्ठ मंत्री थे और उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद का हमदर्द माना जाता था। वह व्यक्तिगत रूप से नेहरू और गांधीजी के मित्र भी थे। चर्चिल को लगा कि क्रिप्स अपनी समाजवादी छवि और भारतीय नेताओं से अच्छे संबंधों के कारण उन्हें मनाने में सफल हो सकते हैं। 23 मार्च 1942 को क्रिप्स दिल्ली पहुँचे और भारतीय नेताओं के साथ बातचीत का लंबा दौर शुरू किया।
क्रिप्स प्रस्ताव के मुख्य बिंदु (Main Proposals of Cripps Mission)
क्रिप्स ने जो प्रस्ताव पेश किए, वे 'अगस्त प्रस्ताव' से कुछ कदम आगे थे, लेकिन भारतीय मांगों से मीलों पीछे थे। इन प्रस्तावों को दो भागों में बांटा जा सकता है:
1. युद्ध के बाद के लिए वादे (Long-term Promises)
- डोमिनियन स्टेटस: युद्ध समाप्त होने के बाद भारत को 'डोमिनियन स्टेटस' (Dominion Status) दिया जाएगा। इसका अर्थ था कि भारत ब्रिटिश राष्ट्रमंडल (Commonwealth) के भीतर एक स्व-शासित देश होगा, जिसे राष्ट्रमंडल से अलग होने का भी अधिकार होगा।
- संविधान सभा का गठन: युद्ध के बाद, भारत का अपना संविधान बनाने के लिए एक संविधान सभा (Constituent Assembly) का गठन किया जाएगा।
- संविधान सभा की संरचना: इसमें ब्रिटिश भारत के प्रांतों से चुने हुए प्रतिनिधि और देसी रियासतों (Princely States) से मनोनीत प्रतिनिधि शामिल होंगे। प्रांतीय प्रतिनिधियों का चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से किया जाएगा।
- प्रांतों को वीटो पावर: यह सबसे विवादास्पद बिंदु था। इसमें कहा गया कि यदि कोई प्रांत या रियासत नए संविधान को स्वीकार नहीं करना चाहता, तो उसे अपनी वर्तमान स्थिति बनाए रखने या ब्रिटिश सरकार के साथ अलग संविधान बनाने का अधिकार होगा।
2. युद्ध के दौरान तत्काल प्रावधान (Immediate Provisions)
- वायसराय की कार्यकारिणी परिषद: युद्ध के दौरान, वायसराय की कार्यकारिणी परिषद (Viceroy's Executive Council) का तुरंत विस्तार किया जाएगा और उसमें भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल किया जाएगा।
- रक्षा का मुद्दा: हालाँकि, सबसे महत्वपूर्ण 'रक्षा मंत्रालय' (Defence Portfolio) ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ के पास ही रहेगा। भारतीयों को केवल रक्षा के कुछ कम महत्वपूर्ण विभाग दिए जाएँगे।
प्रस्तावों का छिपा अर्थ और विश्लेषण (Hidden Meaning & Analysis)
पहली नजर में ये प्रस्ताव प्रगतिशील लग सकते थे, लेकिन गहराई से देखने पर इनमें कई खामियां थीं:
- 'डोमिनियन स्टेटस' बनाम 'पूर्ण स्वराज': कांग्रेस 1929 के लाहौर अधिवेशन में ही 'पूर्ण स्वराज' (Complete Independence) को अपना लक्ष्य घोषित कर चुकी थी। 'डोमिनियन स्टेटस' का प्रस्ताव एक पुरानी और अस्वीकृत मांग को दोहराने जैसा था, जिसे नेहरू रिपोर्ट में मांगा गया था।
- विभाजन का बीज: प्रांतों को नए संविधान को अस्वीकार करने और अलग रहने का जो अधिकार दिया गया था, वह स्पष्ट रूप से भारत के विभाजन का एक 'ब्लूप्रिंट' था। यह मुस्लिम लीग की 'पाकिस्तान' की मांग को एक मौन स्वीकृति देने जैसा था।
- रियासतों का मुद्दा: संविधान सभा में रियासतों के प्रतिनिधियों को जनता द्वारा नहीं, बल्कि राजाओं द्वारा मनोनीत किया जाना था, जो अलोकतांत्रिक था।
- तत्काल शक्ति नहीं: सबसे बड़ी समस्या यह थी कि युद्ध के दौरान वास्तविक शक्ति का हस्तांतरण नहीं किया जा रहा था। रक्षा जैसा महत्वपूर्ण विभाग अंग्रेजों के पास ही रहना था। इसका मतलब था कि भारतीय नेता केवल वायसराय के सलाहकार बनकर रह जाते, उनके पास कोई वास्तविक शक्ति नहीं होती।
भारतीय दलों की विस्तृत प्रतिक्रिया (Detailed Reaction of Indian Parties)
क्रिप्स मिशन के प्रस्तावों ने भारत के किसी भी प्रमुख राजनीतिक दल को संतुष्ट नहीं किया। सभी ने इसे अलग-अलग कारणों से अस्वीकार कर दिया।
1. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रतिक्रिया
कांग्रेस ने इन प्रस्तावों को सिरे से खारिज कर दिया। उनकी मुख्य आपत्तियाँ थीं:
- पूर्ण स्वतंत्रता का अभाव: कांग्रेस को 'डोमिनियन स्टेटस' मंजूर नहीं था, वे तत्काल 'पूर्ण स्वराज' चाहते थे।
- विभाजन का विरोध: प्रांतों को अलग होने का अधिकार देना कांग्रेस के लिए 'देश की एकता पर हमला' था। उन्होंने इसे भारत के 'बाल्कनीकरण' (Balkanization) यानी कई छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ने की साजिश के रूप में देखा।
- रक्षा मंत्रालय: कांग्रेस का मानना था कि यदि भारत को युद्ध में सहयोग करना है, तो रक्षा का नियंत्रण भी भारतीयों के हाथ में होना चाहिए। बिना वास्तविक शक्ति के जिम्मेदारी लेना उन्हें मंजूर नहीं था।
- रियासतों का प्रतिनिधित्व: मनोनीत प्रतिनिधियों का प्रावधान अलोकतांत्रिक था।
2. मुस्लिम लीग की प्रतिक्रिया
मुस्लिम लीग, जिसका नेतृत्व मुहम्मद अली जिन्ना कर रहे थे, ने भी प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। उनका कारण कांग्रेस से बिल्कुल अलग था:
- 'पाकिस्तान' की अस्पष्टता: हालाँकि प्रस्तावों में अलग होने का प्रावधान था, लेकिन इसमें 'पाकिस्तान' की मांग को स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं किया गया था।
- प्रक्रिया का विरोध: लीग का मानना था कि प्रांतों के संघ से अलग होने की प्रक्रिया जटिल थी और वे एक ही संविधान सभा की अवधारणा के खिलाफ थे। वे चाहते थे कि पहले ही पाकिस्तान का गठन कर दिया जाए।
3. अन्य दलों की प्रतिक्रिया
- हिन्दू महासभा: इन्होंने भी प्रस्तावों का कड़ा विरोध किया, क्योंकि वे 'अखंड भारत' के समर्थक थे और प्रांतों को अलग होने का अधिकार देने के सख्त खिलाफ थे।
- दलित वर्ग (डॉ. अंबेडकर): डॉ. अंबेडकर ने प्रस्तावों को यह कहकर खारिज कर दिया कि इनमें दलितों और अनुसूचित जातियों के हितों की रक्षा के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया था।
- सिख समुदाय: सिखों को डर था कि यदि प्रांतों को अलग होने का अधिकार दिया गया और पंजाब ने मुस्लिम लीग के अधीन पाकिस्तान में जाने का फैसला किया, तो वे एक अल्पसंख्यक के रूप में फंस जाएँगे।
इस प्रकार, क्रिप्स मिशन एकमात्र ऐसा मिशन बन गया जिसे भारत के लगभग हर राजनीतिक समूह ने अस्वीकार कर दिया।
क्रिप्स मिशन क्यों असफल हुआ? (Why did the Cripps Mission Fail?)
11 अप्रैल 1942 को क्रिप्स मिशन की विफलता की आधिकारिक घोषणा कर दी गई। इसकी असफलता के मुख्य कारण निम्नलिखित थे:
- प्रस्तावों में अस्पष्टता: प्रस्ताव भविष्य के वादों पर टिके थे (डोमिनियन स्टेटस, संविधान सभा) जबकि तत्काल शक्ति हस्तांतरण (विशेषकर रक्षा) पर वे मौन थे।
- चर्चिल का अड़ियल रवैया: यह एक बड़ा कारण था। प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने क्रिप्स को स्पष्ट निर्देश दिया था कि वे प्रस्तावों के मूल ढांचे से बाहर जाकर कोई समझौता न करें। जब कांग्रेस ने रक्षा मंत्रालय पर बातचीत करनी चाही, तो चर्चिल ने साफ इंकार कर दिया। कई इतिहासकार मानते हैं कि चर्चिल यह मिशन केवल अमेरिकी दबाव में भेज रहे थे और वे खुद इसकी सफलता नहीं चाहते थे। &G;
- भारतीयों का अविश्वास: भारतीयों का ब्रिटिश वादों से भरोसा उठ चुका था। उन्हें लगा कि ब्रिटेन केवल युद्ध में मदद लेने के लिए ये वादे कर रहा है और युद्ध जीतने के बाद वह मुकर जाएगा।
- कांग्रेस और लीग में मतभेद: कांग्रेस 'अखंड भारत' और 'पूर्ण स्वराज' चाहती थी, जबकि लीग 'पाकिस्तान' से कम पर राजी नहीं थी। क्रिप्स के प्रस्ताव इन दोनों चरम मांगों के बीच संतुलन बनाने में विफल रहे।
- गांधीजी का रुख: महात्मा गांधी ने इन प्रस्तावों में गहरी दिलचस्पी नहीं दिखाई। वे युद्ध के दौरान किसी भी सशर्त समझौते के खिलाफ थे।
"पोस्ट-डेटेड चेक" का सच (The Truth of the "Post-Dated Cheque")
क्रिप्स मिशन के संदर्भ में सबसे प्रसिद्ध टिप्पणी महात्मा गांधी की है। उन्होंने इन प्रस्तावों को "एक पोस्ट-डेटेड चेक" (A Post-Dated Cheque) करार दिया। इसका मतलब था, "एक ऐसा चेक जो भविष्य की तारीख का है।" यानी, वादा तो किया जा रहा है, लेकिन वह मिलेगा भविष्य में, और अभी तुरंत कुछ भी नहीं मिल रहा।
बाद में इसमें एक और मुहावरा जोड़ा गया: "डूबते हुए बैंक का पोस्ट-डेटेड चेक" (A Post-Dated Cheque on a failing bank)। इसका अर्थ यह था कि ब्रिटिश साम्राज्य (बैंक) खुद युद्ध में हारने (डूबने) की कगार पर है, ऐसे में उसके भविष्य के वादों (चेक) का क्या भरोसा?
परिणाम और दीर्घकालिक प्रभाव (Consequences & Impact)
क्रिप्स मिशन की विफलता का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर गहरा और तत्काल प्रभाव पड़ा।
- भारत छोड़ो आंदोलन (Quit India Movement): मिशन की असफलता ने यह स्पष्ट कर दिया कि ब्रिटिश सरकार आसानी से सत्ता नहीं छोड़ेगी। इससे कांग्रेस और विशेष रूप से गांधीजी का धैर्य टूट गया। इसी निराशा के फलस्वरूप, कुछ ही महीनों बाद, 8 अगस्त 1942 को, कांग्रेस ने "भारत छोड़ो आंदोलन" शुरू किया, जिसने 'करो या मरो' के नारे के साथ ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी।
- विभाजन की स्वीकृति: भले ही मिशन असफल रहा, लेकिन इसने पहली बार आधिकारिक ब्रिटिश प्रस्तावों में 'विभाजन के सिद्धांत' (प्रांतों को अलग होने का अधिकार) को शामिल कर लिया। इसने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग को वैधता प्रदान की और भविष्य में विभाजन का रास्ता लगभग तय कर दिया।
- ब्रिटिश कमजोरी का प्रदर्शन: इस मिशन ने दुनिया को दिखा दिया कि ब्रिटेन अब भारत को एकजुट रखने या अपनी शर्तों पर चलाने की स्थिति में नहीं है। युद्ध के बाद ब्रिटेन की कमजोर होती आर्थिक और सैन्य स्थिति ने इसे और स्पष्ट कर दिया।
- अंतिम बातचीत का प्रयास: यह मिशन ब्रिटिश सरकार द्वारा कांग्रेस और लीग को एक साथ लाकर एक संयुक्त भारत के लिए बातचीत करने का लगभग अंतिम गंभीर प्रयास था। इसके विफल होने के बाद, राजनीतिक खाई इतनी गहरी हो गई कि उसे पाटना असंभव हो गया।
निष्कर्ष (Conclusion)
क्रिप्स मिशन 1942, भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण 'टर्निंग पॉइंट' था। यह एक ऐसा प्रस्ताव था जो "बहुत कम और बहुत देर से" (Too little, too late) आया। यह मिशन भारतीयों की 'पूर्ण स्वतंत्रता' की आकांक्षा को समझने में विफल रहा और इसने ब्रिटिश सरकार की 'फूट डालो और राज करो' की नीति को ही आगे बढ़ाया।
भले ही सर स्टैफर्ड क्रिप्स खाली हाथ लौटे, लेकिन इस असफलता ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई और निर्णायक दिशा दी। इसने स्पष्ट कर दिया कि स्वतंत्रता अब बातचीत या प्रस्तावों से नहीं, बल्कि एक अंतिम और निर्णायक जन-आंदोलन से ही प्राप्त होगी, जिसकी परिणति 'भारत छोड़ो आंदोलन' के रूप में हुई और अंततः 1947 में भारत को आजादी मिली।
FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)
- Q1. क्रिप्स मिशन किस वर्ष भारत आया था?
A. क्रिप्स मिशन 23 मार्च 1942 को भारत (दिल्ली) पहुँचा था। - Q2. क्रिप्स मिशन का मुख्य उद्देश्य क्या था?
A. इसका मुख्य उद्देश्य द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के खिलाफ भारत का पूर्ण सैन्य और राजनीतिक सहयोग प्राप्त करना था, जिसके बदले में युद्ध के बाद भारत को स्व-शासन का वादा किया गया। - Q3. क्रिप्स मिशन की असफलता का सबसे बड़ा परिणाम क्या हुआ?
A. इसकी असफलता का सबसे तत्काल और बड़ा परिणाम 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी द्वारा 'भारत छोड़ो आंदोलन' (Quit India Movement) की शुरुआत थी। - Q4. "पोस्ट-डेटेड चेक" किसने और क्यों कहा?
A. यह प्रसिद्ध टिप्पणी महात्मा गांधी ने क्रिप्स प्रस्तावों के लिए की थी। क्योंकि ये प्रस्ताव तत्काल स्वतंत्रता नहीं दे रहे थे, बल्कि युद्ध के बाद 'डोमिनियन स्टेटस' देने का एक भविष्य का वादा (पोस्ट-डेटेड चेक) कर रहे थे। - Q5. कांग्रेस ने क्रिप्स प्रस्ताव को क्यों अस्वीकार किया?
A. कांग्रेस ने इसे मुख्य रूप से तीन कारणों से अस्वीकार किया: 1) 'पूर्ण स्वराज' के बजाय 'डोमिनियन स्टेटस' का प्रस्ताव। 2) प्रांतों को अलग होने का अधिकार देना (जो विभाजन का संकेत था)। 3) युद्ध के दौरान रक्षा मंत्रालय पर वास्तविक नियंत्रण न मिलना। - Q6. मुस्लिम लीग ने क्रिप्स प्रस्ताव को क्यों अस्वीकार किया?
A. मुस्लिम लीग ने इसे इसलिए अस्वीकार किया क्योंकि इसमें 'पाकिस्तान' की मांग को स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं किया गया था और न ही उसके गठन की कोई स्पष्ट प्रक्रिया बताई गई थी।
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