भारतीय संवैधानिक इतिहास में 24 अप्रैल 1973 का दिन एक ऐतिहासिक मोड़ के रूप में दर्ज है। यह वह दिन था जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया। यह केवल एक मुकदमा नहीं था; यह भारतीय लोकतंत्र के भविष्य, संसद की शक्तियों और नागरिकों के मौलिक अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करने वाला एक महा-निर्णय था।
इस एक फैसले ने "संविधान की मूल संरचना" (Basic Structure Doctrine) के सिद्धांत को जन्म दिया, जिसने यह स्पष्ट कर दिया कि संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति असीमित नहीं है। यह निर्णय आज भी भारत के संविधान को एक जीवंत और सुरक्षित दस्तावेज़ बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
📑 विषय सूची (Table of Contents)
- केशवानंद भारती केस: एक परिचय
- याचिकाकर्ता कौन थे? (Who was Kesavananda Bharati?)
- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: संसद बनाम न्यायपालिका का संघर्ष
- गोलकनाथ केस (1967) का निर्णायक मोड़
- सरकार की प्रतिक्रिया: 24वां, 25वां और 29वां संशोधन
- सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य प्रश्न
- सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय (7-6 का बहुमत)
- क्या है 'मूल संरचना' का सिद्धांत?
- इस फैसले का प्रभाव और महत्व
- निष्कर्ष: लोकतंत्र का रक्षा कवच
केशवानंद भारती केस: एक परिचय
यह मामला केरल के एडनीर मठ के प्रमुख (मठाधीश) स्वामी केशवानंद भारती द्वारा दायर एक याचिका से शुरू हुआ। केरल सरकार ने दो भूमि सुधार कानून (Land Reforms Act) पारित किए, जिसके तहत मठ की संपत्ति का अधिग्रहण किया जा रहा था।
स्वामी भारती ने इसे संविधान के अनुच्छेद 26 (धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 31 (संपत्ति का अधिकार, जो उस समय एक मौलिक अधिकार था) का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी। लेकिन यह याचिका केवल संपत्ति के अधिकार तक सीमित नहीं रही; यह जल्द ही एक बड़े संवैधानिक सवाल में बदल गई: क्या संसद को संविधान के किसी भी हिस्से को, यहाँ तक कि मौलिक अधिकारों को भी, बदलने का असीमित अधिकार है?
याचिकाकर्ता कौन थे? (Who was Kesavananda Bharati?)
श्रील केशवानंद भारती केरल के कासरगोड जिले में स्थित एडनीर मठ के प्रमुख थे। वह एक हिंदू संत, वेदों के ज्ञाता और एक धार्मिक नेता थे। जब केरल सरकार के भूमि सुधार कानूनों ने उनके मठ की भूमि और वित्तीय स्वायत्तता को खतरे में डाला, तो उन्होंने प्रसिद्ध वकील नानी पालखीवाला के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। यह विडंबना ही है कि एक संत द्वारा अपने धार्मिक संस्थान की संपत्ति बचाने के लिए दायर किया गया मुकदमा, भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े रक्षक सिद्धांतों में से एक का आधार बन गया।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: संसद बनाम न्यायपालिका का संघर्ष
केशवानंद भारती केस तक पहुँचने से पहले, संसद और न्यायपालिका के बीच शक्तियों को लेकर एक लंबा संघर्ष चल रहा था। यह संघर्ष मुख्य रूप से अनुच्छेद 368 (संविधान में संशोधन की संसद की शक्ति) और अनुच्छेद 13 (कानून जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, वे शून्य होंगे) के इर्द-गिर्द घूमता था।
इस संघर्ष को समझने के लिए तीन पिछले मामलों को जानना जरूरी है:
- शंकर प्रसाद केस (1951): इस मामले में, पहले संविधान संशोधन को चुनौती दी गई, जिसने भूमि सुधारों के लिए संपत्ति के अधिकार को सीमित कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद की संशोधन शक्ति मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है। कोर्ट ने माना कि "संशोधन" अनुच्छेद 13 के तहत "कानून" नहीं है।
- सज्जन सिंह केस (1965): इस मामले में भी कोर्ट ने शंकर प्रसाद के फैसले को बरकरार रखा और माना कि संसद मौलिक अधिकारों को संशोधित कर सकती है। हालांकि, दो जजों (जस्टिस हिदायतुल्ला और जस्टिस मुधोलकर) ने इस पर संदेह व्यक्त किया, जिसने भविष्य के लिए बहस का दरवाजा खोल दिया।
इन दोनों मामलों में, संसद को संविधान में संशोधन करने के लिए सर्वोच्च माना गया। लेकिन यह स्थिति 1967 में पूरी तरह बदल गई।
गोलकनाथ केस (1967) का निर्णायक मोड़
गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के मामले में, 11 जजों की बेंच ने 6-5 के बहुमत से अपना ही पिछला फैसला पलट दिया। कोर्ट ने कहा:
- संसद के पास मौलिक अधिकारों को छीनने या सीमित करने की शक्ति नहीं है।
- संविधान संशोधन (Art 368) भी अनुच्छेद 13 के तहत एक "कानून" है, और यदि यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो इसे शून्य माना जाएगा।
इस फैसले ने संसद की सर्वोच्चता पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगा दिया और न्यायपालिका को मौलिक अधिकारों के रक्षक के रूप में स्थापित किया। इसने संसद और न्यायपालिका के बीच एक सीधा टकराव पैदा कर दिया।
सरकार की प्रतिक्रिया: 24वां, 25वां और 29वां संशोधन
1971 में, इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने भारी बहुमत से जीत हासिल की और गोलकनाथ केस के फैसले को पलटने के लिए तेजी से संवैधानिक संशोधन किए।
- 24वां संशोधन (1971):
- इसने अनुच्छेद 13 और 368 दोनों में संशोधन किया।
- इसने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 368 के तहत किए गए संशोधन पर अनुच्छेद 13 (मौलिक अधिकारों वाला) लागू नहीं होगा।
- इसने राष्ट्रपति के लिए संवैधानिक संशोधनों पर सहमति देना अनिवार्य कर दिया। संक्षेप में, इसने संसद को मौलिक अधिकारों सहित किसी भी हिस्से को संशोधित करने की "असीमित" शक्ति वापस दे दी।
- 25वां संशोधन (1971):
- इसने संपत्ति के अधिकार (अनुच्छेद 31) को और कमजोर कर दिया।
- इसने अनुच्छेद 31C जोड़ा, जिसमें कहा गया कि यदि सरकार निदेशक सिद्धांतों (DPSP) को लागू करने के लिए कोई कानून बनाती है, तो उसे अनुच्छेद 14, 19 या 31 के उल्लंघन के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
- इससे भी खतरनाक बात यह थी कि इसने ऐसे कानूनों को "न्यायिक समीक्षा" (Judicial Review) से बाहर कर दिया।
- 29वां संशोधन (1972):
- इसने केरल के उन दो भूमि सुधार कानूनों को संविधान की 9वीं अनुसूची में डाल दिया, जिन्हें केशवानंद भारती ने चुनौती दी थी। (9वीं अनुसूची में डाले गए कानूनों को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी)।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य प्रश्न
केशवानंद भारती केस में इन्हीं संशोधनों (24वें, 25वें और 29वें) की वैधता को चुनौती दी गई। गोलकनाथ केस की समीक्षा के लिए, इस बार सुप्रीम कोर्ट के इतिहास की सबसे बड़ी बेंच (13 जजों की) का गठन किया गया।
बेंच के सामने मुख्य सवाल ये थे:
- क्या गोलकनाथ केस का फैसला सही था?
- क्या 24वां और 25वां संशोधन संवैधानिक रूप से वैध हैं?
- अनुच्छेद 368 के तहत संसद की संशोधन शक्ति की सीमा क्या है? क्या यह असीमित है?
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय (7-6 का बहुमत)
यह सुनवाई 68 दिनों तक चली, जो आज तक की सबसे लंबी सुनवाई है। 24 अप्रैल 1973 को, 13 जजों ने 11 अलग-अलग मत दिए, लेकिन 7-6 के मामूली बहुमत से एक ऐतिहासिक "सारांश" (Summary) पर सहमति बनी, जिसने भारतीय संविधान की व्याख्या को हमेशा के लिए बदल दिया।
फैसले के मुख्य बिंदु निम्नलिखित थे:
- गोलकनाथ केस को पलटा गया: कोर्ट ने माना कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है। (इस बिंदु पर सरकार जीत गई)।
- 24वां संशोधन वैध: कोर्ट ने 24वें संशोधन को वैध ठहराया, जिसका अर्थ था कि संसद को मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार है।
- सबसे महत्वपूर्ण: 'मूल संरचना' का सिद्धांत
- कोर्ट ने यहीं पर ऐतिहासिक संतुलन साधा। 7 जजों (H.R. खन्ना के निर्णायक मत सहित) ने यह माना कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद की शक्ति "असीमित" नहीं है।
- संसद संविधान में "संशोधन" (amend) कर सकती है, लेकिन वह इसे "नष्ट" (destroy), "निरस्त" (abrogate) या इसकी "आत्मा" को नहीं बदल सकती।
- संविधान की कुछ बुनियादी विशेषताएं हैं जिन्हें "मूल संरचना" (Basic Structure) कहा गया, और संसद उन्हें नहीं बदल सकती।
- 25वें संशोधन पर निर्णय: कोर्ट ने 25वें संशोधन के पहले भाग (संपत्ति के अधिकार को सीमित करना) को वैध माना, लेकिन दूसरे भाग (जिसने न्यायिक समीक्षा को छीना था) को अमान्य कर दिया, क्योंकि "न्यायिक समीक्षा" संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है।
क्या है 'मूल संरचना' का सिद्धांत?
यह केशवानंद भारती केस की सबसे बड़ी देन है। "मूल संरचना" का सिद्धांत यह है कि संविधान में कुछ ऐसे मौलिक सिद्धांत और विशेषताएं हैं जो इसकी नींव हैं। संसद इन नींव के पत्थरों को नहीं हटा सकती, भले ही उसके पास कितना भी बहुमत क्यों न हो।
सुप्रीम कोर्ट ने उस समय "मूल संरचना" की कोई निश्चित सूची नहीं दी, लेकिन जजों के विचारों से कुछ मुख्य तत्व सामने आए:
- संविधान की सर्वोच्चता
- लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक सरकार
- संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र
- शक्तियों का पृथक्करण ( विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच)
- संविधान का संघीय स्वरूप
- न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की शक्ति
- संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित उद्देश्य
- संसदीय प्रणाली
- स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव
- मौलिक अधिकारों और निदेशक सिद्धांतों के बीच संतुलन
- कानून का शासन (Rule of Law)
यह सूची समय के साथ बढ़ी है, और सुप्रीम कोर्ट ने बाद के कई मामलों में इसमें नए तत्वों को जोड़ा है।
इस फैसले का प्रभाव और महत्व
केशवानंद भारती फैसले का भारतीय लोकतंत्र और संविधान पर गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा:
- संसद की शक्तियों पर लगाम: इसने स्पष्ट कर दिया कि संसद संप्रभु (sovereign) नहीं है; केवल संविधान संप्रभु है। यह बहुमत की तानाशाही को रोकता है।
- लोकतंत्र की रक्षा: 1975 में जब आपातकाल (Emergency) लगाया गया, तब इस सिद्धांत की असली परीक्षा हुई। सरकार ने 39वां संशोधन पारित किया, जिसने प्रधानमंत्री के चुनाव को अदालत में चुनौती देने से रोक दिया। इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने इसी "मूल संरचना" (लोकतंत्र और न्यायिक समीक्षा) के आधार पर इस संशोधन को रद्द कर दिया।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता की पुष्टि: इसने न्यायपालिका को संविधान के अंतिम व्याख्याकार और रक्षक के रूप में मजबूती से स्थापित किया।
- मिनर्वा मिल्स केस (1980): आपातकाल के दौरान लाए गए 42वें संशोधन ने फिर से संसद को "असीमित" शक्ति देने की कोशिश की। मिनर्वा मिल्स मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने "मूल संरचना" के सिद्धांत का उपयोग करके इन प्रावधानों को फिर से रद्द कर दिया और इस सिद्धांत को और मजबूत किया।
निष्कर्ष: लोकतंत्र का रक्षा कवच
केशवानंद भारती केस केवल एक कानूनी मुकदमा नहीं था, बल्कि यह भारत के लोकतंत्र की आत्मा को बचाने का एक प्रयास था। यह फैसला संवैधानिक संशोधन की शक्ति और नागरिकों के अधिकारों के बीच एक नाजुक संतुलन स्थापित करता है।
इसने यह सुनिश्चित किया कि संविधान का मूल चरित्र किसी भी राजनीतिक दल के बहुमत से बदला नहीं जा सकता। यह फैसला आज भी हर भारतीय नागरिक के अधिकारों के लिए एक "रक्षा कवच" (shield) के रूप में खड़ा है और यह याद दिलाता है कि संविधान की आत्मा, जनता की संप्रभुता में निहित है, न कि संसद के किसी अस्थायी बहुमत में।
❓ अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
प्रश्न 1: केशवानंद भारती कौन थे?
उत्तर: केशवानंद भारती केरल के एडनीर मठ के प्रमुख (मठाधीश) थे। उन्होंने केरल भूमि सुधार कानूनों को चुनौती दी, जिसने उनके मठ की संपत्ति को प्रभावित किया था। उनकी याचिका ही इस ऐतिहासिक फैसले का आधार बनी।
प्रश्न 2: मूल संरचना सिद्धांत का सटीक मतलब क्या है?
उत्तर: इसका मतलब है कि संविधान की कुछ बुनियादी और मौलिक विशेषताएं (जैसे लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, न्यायिक समीक्षा, शक्तियों का पृथक्करण) हैं, जिन्हें संसद अनुच्छेद 368 के तहत अपने संशोधन के अधिकार का उपयोग करके भी बदल या नष्ट नहीं कर सकती है।
प्रश्न 3: केशवानंद भारती केस का मुख्य परिणाम क्या था?
उत्तर: मुख्य परिणाम यह था कि सुप्रीम कोर्ट ने 7-6 के बहुमत से फैसला दिया कि संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन वह संविधान की "मूल संरचना" (Basic Structure) को नहीं बदल सकती।
प्रश्न 4: इस फैसले ने गोलकनाथ केस को कैसे बदला?
उत्तर: गोलकनाथ केस (1967) ने कहा था कि संसद मौलिक अधिकारों को बिल्कुल भी नहीं छू सकती। केशवानंद भारती केस ने इस फैसले को पलट दिया और कहा कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन कर सकती है, *जब तक* कि वे संशोधन संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन न करें।
प्रश्न 5: इस मामले में 13 जजों की बेंच क्यों बैठी थी?
उत्तर: क्योंकि यह मामला 11-जजों की बेंच द्वारा दिए गए गोलकनाथ केस के फैसले की समीक्षा कर रहा था। संवैधानिक परंपरा के अनुसार, पिछले किसी फैसले की समीक्षा करने के लिए एक बड़ी बेंच की आवश्यकता होती है।
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