द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध | 2nd Anglo-Maratha War in Hindi

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध भारतीय इतिहास का एक ऐसा निर्णायक अध्याय है जिसने मराठा साम्राज्य के गौरवशाली युग का अंत कर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत की सर्वोच्च शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया। सन् 1803 से 1805 तक चला यह संघर्ष मराठा सरदारों की आपसी फूट और अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों का परिणाम था, जिसने भारत के राजनीतिक मानचित्र को हमेशा के लिए बदल दिया।

                                                         

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1805)

📑 विषय सूची (Table of Contents)

युद्ध की पृष्ठभूमि: तूफान से पहले की शांति

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782) के बाद सालबाई की संधि से अंग्रेजों और मराठों के बीच लगभग 20 वर्षों की शांति स्थापित हुई। लेकिन यह शांति केवल बाहरी थी। इस दौरान, मराठा संघ के भीतर सत्ता संघर्ष अपने चरम पर था। पेशवा, सिंधिया, होल्कर, गायकवाड़ और भोंसले जैसे प्रमुख मराठा सरदार एक-दूसरे पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए लगातार षड्यंत्र रच रहे थे। कुशल राजनीतिज्ञ नाना फड़नवीस की मृत्यु के बाद मराठा राजनीति में एक ऐसा शून्य पैदा हो गया, जिसे कोई भर न सका और इसी का लाभ अंग्रेजों ने उठाया।

युद्ध के प्रमुख कारण: पतन की नींव

इस महाविनाशकारी युद्ध के पीछे कई जटिल कारण थे, जिन्होंने मिलकर इसकी भूमिका तैयार की।

  1. मराठा महासंघ की आंतरिक फूट
    मराठा साम्राज्य की सबसे बड़ी कमजोरी उनकी आंतरिक कलह ही बनी। पुणे में पेशवा के दरबार पर नियंत्रण के लिए ग्वालियर के दौलतराव सिंधिया और इंदौर के यशवंतराव होल्कर के बीच दुश्मनी चरम पर थी। 1802 में, यशवंतराव होल्कर ने पुणे के पास हडपसर की लड़ाई में पेशवा और सिंधिया की संयुक्त सेना को बुरी तरह पराजित कर दिया।
  2. पेशवा बाजीराव द्वितीय की अदूरदर्शिता
    इस हार से भयभीत होकर, पेशवा बाजीराव द्वितीय ने एक ऐसा कदम उठाया जो मराठा साम्राज्य के लिए आत्मघाती साबित हुआ। उन्होंने पुणे से भागकर अंग्रेजों से शरण ली और अपनी खोई हुई सत्ता पाने के लिए उनके साथ एक अपमानजनक संधि कर ली।
  3. बसीन की संधि (1802): युद्ध का तात्कालिक कारण
    31 दिसंबर, 1802 को पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों के साथ बसीन की संधि (Treaty of Bassein) पर हस्ताक्षर किए। यह एक सहायक संधि (Subsidiary Alliance) थी, जिसकी शर्तों ने मराठा स्वतंत्रता को प्रभावी रूप से समाप्त कर दिया:
    • पेशवा ने अपने राज्य में एक ब्रिटिश सहायक सेना रखना स्वीकार किया और उसका पूरा खर्च उठाने का वचन दिया।
    • पेशवा किसी अन्य यूरोपीय शक्ति से कोई संबंध नहीं रखेंगे।
    • सभी विदेशी मामले अंग्रेजों की सलाह से ही तय किए जाएंगे।

    इस संधि को अन्य मराठा सरदारों, विशेषकर सिंधिया और भोंसले ने "मराठा स्वतंत्रता को अंग्रेजों के हाथ बेचना" माना। उन्होंने इसे मराठा संघ की संप्रभुता पर सीधा हमला करार दिया और इसका घोर विरोध किया, जिससे युद्ध का आरंभ निश्चित हो गया।

  4. अंग्रेजों की विस्तारवादी नीति और फ्रांसीसी भय
    उस समय के गवर्नर-जनरल लॉर्ड वेलेस्ली की "फूट डालो और राज करो" की नीति भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार पर केंद्रित थी। मराठों की आपसी कलह ने उन्हें मराठा मामलों में हस्तक्षेप करने का सुनहरा अवसर दिया। साथ ही, मराठा सेना में कई फ्रांसीसी अधिकारियों की मौजूदगी ने अंग्रेजों को यह भय भी दिखाया कि मराठे फ्रांसीसियों के साथ मिलकर उनके खिलाफ एक बड़ा खतरा बन सकते हैं।

युद्ध का घटनाक्रम और प्रमुख लड़ाइयाँ

बसीन की संधि के बाद अंग्रेजों ने पेशवा को पुणे में पुनः स्थापित कर दिया। सिंधिया और भोंसले ने इसे चुनौती दी और 1803 में युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजों ने एक सुनियोजित रणनीति के तहत दो मुख्य मोर्चों पर एक साथ हमला किया:

दक्षिण का मोर्चा: जनरल आर्थर वेलेस्ली का नेतृत्व

  • अहमदनगर का घेराव (अगस्त 1803): जनरल आर्थर वेलेस्ली (जो बाद में ड्यूक ऑफ वेलिंगटन बने) ने अहमदनगर के किले पर कब्जा कर युद्ध की शुरुआत की।
  • अस्से का युद्ध (Battle of Assaye, 23 सितंबर 1803): यह युद्ध की सबसे निर्णायक लड़ाइयों में से एक थी, जहाँ वेलेस्ली की छोटी सेना ने सिंधिया और भोंसले की विशाल संयुक्त सेना को पराजित किया।
  • अरगाँव का युद्ध (Battle of Argaon, नवंबर 1803): इस लड़ाई में अंग्रेजों ने एक बार फिर मराठा सेना को बुरी तरह हराया, जिससे दक्षिण में उनकी कमर टूट गई।

उत्तर का मोर्चा: जनरल लेक का आक्रमण

  • अलीगढ़ और दिल्ली पर नियंत्रण (सितंबर 1803): जनरल लेक ने फ्रांसीसी अधिकारी पेरॉन के अधीन अलीगढ़ के मजबूत किले पर कब्जा किया। इसके तुरंत बाद, उन्होंने दिल्ली पर अधिकार कर मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय को अपने संरक्षण में ले लिया, जिससे अंग्रेजों की राजनीतिक प्रतिष्ठा आसमान छू गई।
  • लसवारी की लड़ाई (Battle of Laswari, नवंबर 1803): इस लड़ाई में जनरल लेक ने सिंधिया की बची-खुची उत्तरी सेना को निर्णायक रूप से समाप्त कर दिया।

इन विनाशकारी हारों के बाद सिंधिया और भोंसले को आत्मसमर्पण करने पर मजबूर होना पड़ा। यशवंतराव होल्कर, जो शुरुआत में इस संघर्ष से अलग रहे थे, ने 1804 में अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला, लेकिन अंततः 1805 के अंत तक उन्हें भी शांति संधि करनी पड़ी।

प्रमुख संधियाँ: मराठा स्वाभिमान का समर्पण

संधि का नाम तिथिक किसके बीच हुई मुख्य प्रावधान
देवगाँव की संधि 17 दिसंबर, 1803 अंग्रेज और भोंसले भोंसले ने कटक, बालासोर और बरार सहित अपने बड़े तटीय क्षेत्र अंग्रेजों को सौंप दिए।
सुर्जी-अर्जनगाँव की संधि 30 दिसंबर, 1803 अंग्रेज और सिंधिया सिंधिया ने गंगा-यमुना दोआब, अहमदनगर, भरूच, दिल्ली और आगरा के क्षेत्र अंग्रेजों को दे दिए।
राजपुर घाट की संधि 25 दिसंबर, 1805 अंग्रेज और होल्कर होल्कर ने चंबल नदी के उत्तर में अपने क्षेत्रों पर दावा छोड़ दिया।

युद्ध के दूरगामी परिणाम और प्रभाव

  • मराठा शक्ति का पतन: इस युद्ध ने मराठा संघ को वस्तुतः समाप्त कर दिया। उनकी एकता और सैन्य शक्ति पूरी तरह बिखर गई।
  • ब्रिटिश प्रभुत्व की स्थापना: ईस्ट इंडिया कंपनी मध्य और उत्तर भारत की निर्विवाद रूप से सबसे शक्तिशाली ताकत बन गई। दिल्ली और आगरा पर नियंत्रण के साथ, वे मुगल सम्राट के संरक्षक बन गए।
  • बड़े भू-भाग का हस्तांतरण: अंग्रेजों ने दिल्ली, आगरा, गंगा-यमुना दोआब, बुंदेलखंड और ओडिशा जैसे रणनीतिक और उपजाऊ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
  • आर्थिक शोषण का मार्ग प्रशस्त: इन नए क्षेत्रों पर नियंत्रण ने अंग्रेजों के लिए भारत के आर्थिक शोषण का रास्ता और भी आसान कर दिया।

ऐतिहासिक महत्त्व और निष्कर्ष

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध का ऐतिहासिक महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि इसने मराठा साम्राज्य को स्थायी रूप से कमजोर कर दिया, जिससे तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-18) का मार्ग प्रशस्त हुआ, जिसमें मराठा शक्ति पूरी तरह समाप्त हो गई। यह युद्ध इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि आंतरिक फूट और एकता का अभाव किसी भी बड़ी शक्ति के पतन का कारण बन सकता है।

अंततः, यह युद्ध भारतीय इतिहास का वह मोड़ था जिसने अंग्रेजों के लिए भारत पर "राजनीतिक एकाधिकार" का दरवाजा खोल दिया और मराठों के एक गौरवशाली युग का अंत कर दिया।

❓ अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

प्रश्न 1: दूसरा आंग्ल-मराठा युद्ध कब और क्यों हुआ?

यह युद्ध 1803 से 1805 तक हुआ। इसका मुख्य कारण मराठा सरदारों की आपसी दुश्मनी और पेशवा बाजीराव द्वितीय द्वारा अंग्रेजों के साथ बसीन की सहायक संधि पर हस्ताक्षर करना था, जिसे अन्य मराठा सरदारों ने अपनी संप्रभुता पर हमला माना।

प्रश्न 2: बसीन की संधि क्या थी?

बसीन की संधि 31 दिसंबर 1802 को पेशवा बाजीराव द्वितीय और अंग्रेजों के बीच हुई एक सहायक संधि थी, जिसके तहत पेशवा ने अपनी स्वतंत्रता प्रभावी रूप से अंग्रेजों के अधीन कर दी।

प्रश्न 3: इस युद्ध में मराठों की हार के मुख्य कारण क्या थे?

मराठों की हार के मुख्य कारण थे: (1) प्रमुख सरदारों के बीच एकता का पूर्ण अभाव, (2) अंग्रेजों की तुलना में पुरानी सैन्य तकनीक और रणनीति, (3) जनरल आर्थर वेलेस्ली और लॉर्ड लेक जैसा बेहतर ब्रिटिश नेतृत्व, और (4) अंग्रेजों का बेहतर जासूसी और कूटनीतिक नेटवर्क।

प्रश्न 4: इस युद्ध का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम क्या था?

इस युद्ध का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह था कि इसने मराठा शक्ति को गंभीर रूप से कमजोर कर दिया और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में सर्वोच्च शक्ति बना दिया, जिससे भारत पर उनके पूर्ण नियंत्रण का मार्ग प्रशस्त हुआ।

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