📑 विषय सूची (Table of Contents)
- परिचय: 11वां संविधान संशोधन क्या है?
- संशोधन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और आवश्यकता
- मूल संविधान में क्या प्रावधान थे?
- तत्कालीन कानूनी चुनौती: एन. बी. खरे मामला (1957)
- सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और उत्पन्न हुई अनिश्चितता
- संशोधन की प्रक्रिया: यह कब और कैसे हुआ?
- संशोधन के मुख्य प्रावधान (विस्तृत विश्लेषण)
- अनुच्छेद 66 में संशोधन (उपराष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया)
- अनुच्छेद 71 में संशोधन (चुनाव को चुनौती)
- 11वें संशोधन का महत्व और दूरगामी प्रभाव
- निष्कर्ष
- ❓ FAQs - अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
परिचय: 11वां संविधान संशोधन क्या है?
भारतीय संविधान का 11वां संशोधन (Constitution (Eleventh Amendment) Act, 1961), भारतीय गणतंत्र के दो सर्वोच्च संवैधानिक पदों—राष्ट्रपति (President) और उपराष्ट्रपति (Vice-President)—की चुनाव प्रक्रिया को मज़बूत और सुस्पष्ट करने के लिए लाया गया एक महत्वपूर्ण कानूनी सुधार था।
यह संशोधन मुख्य रूप से दो बातों पर केंद्रित था:
- उपराष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया को बदलना (जो पहले संसद के संयुक्त सत्र में होती थी)।
- यह सुनिश्चित करना कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव को केवल इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि उनके 'निर्वाचक मंडल' (Electoral College) में कुछ सीटें खाली थीं।
यह संशोधन भले ही छोटा हो, लेकिन इसने भारत के शीर्ष पदों के चुनावों पर मंडरा रहे एक बड़े कानूनी और संवैधानिक संकट के खतरे को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया। यह केंद्र-राज्य विवादों से नहीं, बल्कि देश के शीर्ष नेतृत्व की संवैधानिक निरंतरता और कानूनी निश्चितता सुनिश्चित करने से संबंधित था।
संशोधन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और आवश्यकता
यह समझने के लिए कि 1961 में इस संशोधन की आवश्यकता क्यों पड़ी, हमें 1957 के राष्ट्रपति चुनावों के दौरान उत्पन्न हुई एक कानूनी चुनौती को देखना होगा।
मूल संविधान में क्या प्रावधान थे?
मूल संविधान के अनुच्छेद 71(1) ने यह व्यवस्था दी थी कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित सभी शंकाओं और विवादों की जांच और निर्णय केवल सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया जाएगा, और उसका निर्णय अंतिम होगा।
लेकिन संविधान इस बात पर चुप था कि यदि निर्वाचक मंडल (Electoral College) - यानी राष्ट्रपति को चुनने वाला समूह, जिसमें संसद और राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं - अधूरा हो तो क्या होगा? क्या तब भी चुनाव वैध माना जाएगा?
तत्कालीन कानूनी चुनौती: एन. बी. खरे मामला (1957)
1957 में जब दूसरे राष्ट्रपति चुनाव (डॉ. राजेंद्र प्रसाद के दूसरे कार्यकाल के लिए) होने वाले थे, तब कुछ राज्यों की विधानसभाएँ भंग थीं।
इस स्थिति में, डॉ. एन. बी. खरे (Dr. N.B. Khare) ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की (एन. बी. खरे बनाम भारत निर्वाचन आयोग, 1957)। उनकी मुख्य दलील यह थी कि राष्ट्रपति का चुनाव तब तक नहीं कराया जा सकता जब तक कि निर्वाचक मंडल पूरा न हो। उनका तर्क था कि यदि राज्यों की विधानसभाएं भंग हैं, तो निर्वाचक मंडल "अधूरा" है, और अधूरे मंडल द्वारा किया गया चुनाव अवैध होगा।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और उत्पन्न हुई अनिश्चितता
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने तकनीकी आधार पर डॉ. खरे की याचिका को खारिज कर दिया (अदालत ने कहा कि चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद उसे इस तरह नहीं रोका जा सकता), लेकिन अदालत ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की। अदालत ने कहा कि चुनाव होने के बाद विजेता उम्मीदवार के चुनाव को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है या नहीं, यह एक अलग प्रश्न है जिस पर वह बाद में विचार कर सकती है।
इस टिप्पणी ने एक बड़ी कानूनी अनिश्चितता पैदा कर दी। इसका मतलब यह था कि कोई भी व्यक्ति, किसी राज्य विधानसभा के भंग होने या कुछ सांसदों/विधायकों के पद खाली होने का बहाना बनाकर, राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकता था। यदि अदालत उस चुनाव को रद्द कर देती, तो देश में एक अभूतपूर्व संवैधानिक संकट पैदा हो जाता।
इसी अनिश्चितता को जड़ से खत्म करने के लिए 11वें संविधान संशोधन की नींव रखी गई।
संशोधन की प्रक्रिया: यह कब और कैसे हुआ?
इस कानूनी कमी को दूर करने के लिए, तत्कालीन कानून मंत्री ए.के. सेन (A. K. Sen) ने 'संविधान (ग्यारहवाँ संशोधन) विधेयक' संसद में पेश किया।
- लोकसभा में पारित: यह विधेयक दिसंबर 1961 में लोकसभा द्वारा पारित किया गया।
- राज्यसभा में पारित: इसके तुरंत बाद इसे राज्यसभा ने भी पारित कर दिया।
- राष्ट्रपति की सहमति: 19 दिसंबर 1961 को राष्ट्रपति की सहमति मिलने के बाद यह 'संविधान (ग्यारहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1961' के रूप में लागू हो गया।
इसका मुख्य उद्देश्य स्पष्ट था: राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों को अनावश्यक और तुच्छ कानूनी चुनौतियों से बचाना और यह सुनिश्चित करना कि निर्वाचक मंडल में अस्थायी रिक्तियों के कारण देश का सर्वोच्च पद खाली न रहे।
संशोधन के मुख्य प्रावधान (विस्तृत विश्लेषण)
11वें संशोधन ने संविधान के दो महत्वपूर्ण अनुच्छेदों—अनुच्छेद 66 और अनुच्छेद 71—में बदलाव किए।
प्रावधान 1: अनुच्छेद 66 में संशोधन (उपराष्ट्रपति चुनाव प्रक्रिया)
यह संशोधन उपराष्ट्रपति के चुनाव की पद्धति से संबंधित था।
पहले क्या था? (अनुच्छेद 66(1))
मूल संविधान के अनुसार, उपराष्ट्रपति का चुनाव संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) की "संयुक्त बैठक" (Joint Meeting) में किया जाना था, और यह गुप्त मतदान (secret ballot) द्वारा होता था।
संशोधन के बाद क्या बदला?
11वें संशोधन ने "संयुक्त बैठक" (Joint Meeting) के प्रावधान को हटा दिया। इसने व्यवस्था दी कि उपराष्ट्रपति का चुनाव एक 'निर्वाचक मंडल' (Electoral College) द्वारा किया जाएगा, जिसमें संसद के दोनों सदनों के सदस्य (निर्वाचित और मनोनीत दोनों) शामिल होंगे।
यह चुनाव आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली (Proportional Representation) के अनुसार एकल संक्रमणीय मत (Single Transferable Vote) द्वारा होगा।
क्यों बदला गया? "संयुक्त बैठक" का प्रावधान अव्यावहारिक (impractical) माना गया। हजारों सांसदों को एक साथ एक हॉल में बिठाकर मतदान कराना एक जटिल प्रक्रिया थी। नई प्रणाली (जो राष्ट्रपति चुनाव के समान है, बस इसमें राज्यों के विधायक शामिल नहीं हैं) अधिक सरल, सुव्यवस्थित और कुशल थी।
प्रावधान 2: अनुच्छेद 71 में संशोधन (चुनाव को चुनौती)
यह 11वें संशोधन का सबसे महत्वपूर्ण और मुख्य प्रावधान था, जिसने एन. बी. खरे मामले से उत्पन्न हुई समस्या का सीधा समाधान किया।
जोड़ा गया नया खंड - अनुच्छेद 71(4)
इस संशोधन ने अनुच्छेद 71 में एक नया खंड (4) जोड़ा। यह नया खंड कहता है:
"The election of a person as President or Vice-President shall not be called in question on the ground of the existence of any vacancy for whatever reason among the members of the electoral college electing him."
"राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के रूप में किसी व्यक्ति के चुनाव को, उसे चुनने वाले निर्वाचक मंडल के सदस्यों के बीच किसी भी कारण से मौजूद किसी भी रिक्ति के आधार पर, प्रश्नगत (challenged) नहीं किया जाएगा।"
इस बदलाव का वास्तविक अर्थ
इसका सीधा सा मतलब यह था कि यदि राष्ट्रपति चुनाव के समय, किसी राज्य की विधानसभा भंग है (जैसे गुजरात विधानसभा), या किसी सांसद या विधायक का पद मृत्यु, इस्तीफे या किसी अन्य कारण से खाली है, तो भी चुनाव वैध माना जाएगा।
कोई भी व्यक्ति इन "खाली सीटों" (Vacancies) को आधार बनाकर चुनाव को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती नहीं दे सकता। इसने यह सुनिश्चित किया कि संवैधानिक पदों पर चुनाव समय पर हों और राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर उन्हें टाला न जा सके।
11वें संशोधन का महत्व और दूरगामी प्रभाव
11वें संविधान संशोधन का भारतीय लोकतंत्र पर गहरा और सकारात्मक प्रभाव पड़ा:
- संवैधानिक स्थिरता: इसने यह सुनिश्चित किया कि देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद (राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति) कभी भी कानूनी दांव-पेंच के कारण खाली न रहें।
- अनावश्यक मुकदमों पर रोक: इसने निर्वाचक मंडल में छोटी-मोटी रिक्तियों को आधार बनाकर चुनावों को चुनौती देने के "frivolous" (तुच्छ) प्रयासों पर रोक लगा दी।
- चुनाव प्रक्रिया का सुदृढीकरण: इसने उपराष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया को सरल (joint meeting हटाकर) और अधिक तार्किक बनाया।
- लोकतांत्रिक निरंतरता: यह संशोधन इस सिद्धांत को स्थापित करता है कि कुछ सदस्यों की अनुपस्थिति पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बंधक नहीं बना सकती। जब तक निर्वाचक मंडल मोटे तौर पर मौजूद है, तब तक चुनाव वैध माना जाएगा।
निष्कर्ष
11वां संविधान संशोधन (1961) भारतीय संविधान के सबसे संक्षिप्त लेकिन सबसे प्रभावशाली संशोधनों में से एक है। यह एक 'निवारक' (preventive) संशोधन था, जिसे भविष्य के संवैधानिक संकटों को टालने के लिए डिज़ाइन किया गया था।
इसने अनुच्छेद 66 को बदलकर उपराष्ट्रपति चुनाव को सुव्यवस्थित किया और अनुच्छेद 71 में खंड (4) जोड़कर यह स्पष्ट कर दिया कि निर्वाचक मंडल (Electoral College) में रिक्तियों के बावजूद राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव **पूर्णतः वैध** माने जाएंगे। यह संशोधन भारत के शीर्ष संवैधानिक पदों की स्थिरता और सम्मान सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।
❓ FAQs - अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
- प्रश्न 1: भारतीय संविधान का 11वां संशोधन कब लागू हुआ?
उत्तर: यह संशोधन 19 दिसंबर 1961 को लागू हुआ। - प्रश्न 2: इस संशोधन का मुख्य विषय क्या था?
उत्तर: इसका मुख्य विषय राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित दो मामलों को स्पष्ट करना था: 1. उपराष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया को बदलना, और 2. निर्वाचक मंडल में रिक्तियों (vacancies) के आधार पर चुनाव को चुनौती देने से रोकना। - प्रश्न 3: 11वें संशोधन ने अनुच्छेद 71 में क्या बदलाव किया?
उत्तर: इसने अनुच्छेद 71 में एक नया खंड (4) जोड़ा, जिसने यह स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव को निर्वाचक मंडल में किसी भी रिक्ति (जैसे किसी राज्य विधानसभा का भंग होना) के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती। - प्रश्न 4: यह संशोधन क्यों आवश्यक था?
उत्तर: यह 1957 के एन. बी. खरे मामले के बाद उत्पन्न हुई कानूनी अनिश्चितता को दूर करने के लिए आवश्यक था, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि शीर्ष पदों के चुनाव समय पर हों और उन्हें तुच्छ आधारों पर चुनौती न दी जा सके। - प्रश्न 5: क्या 11वें संशोधन ने उपराष्ट्रपति के चुनाव में राज्यों की भूमिका को जोड़ा?
उत्तर: नहीं। उपराष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में केवल संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के सदस्य होते हैं। संशोधन ने बस "संयुक्त बैठक" की प्रक्रिया को हटाकर "निर्वाचक मंडल" शब्द का प्रयोग किया।
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