भारतीय इतिहास में कुछ तारीखें केवल कैलेंडर पर एक दिन नहीं होतीं; वे एक पूरे युग का आरंभ होती हैं। 9 जनवरी 1915 ऐसी ही एक तारीख है। यह वह दिन था जब मोहनदास करमचंद गांधी, जिन्हें दुनिया आज 'महात्मा' के नाम से जानती है, दक्षिण अफ्रीका में दो दशकों से अधिक समय बिताने के बाद हमेशा के लिए भारत लौटे। यह केवल एक व्यक्ति की घर वापसी नहीं थी; यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे निर्णायक अध्याय, यानी 'गांधी युग' (Gandhian Era) की शुरुआत थी।
लेकिन 1915 में लौटे गांधी वह नहीं थे जो 1893 में भारत से गए थे। वह एक बैरिस्टर के रूप में गए थे और एक सत्याग्रही के रूप में लौटे थे। दक्षिण अफ्रीका में उनके संघर्षों, उनके 'सत्याग्रह' के प्रयोगों और उनकी जीतों की गूँज पहले ही भारत पहुँच चुकी थी। भारत की धरती उस नेता का इंतजार कर रही थी जो बिखरे हुए असंतोष को एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन में बदल सके।
इस लेख में, हम महात्मा गांधी के भारत आगमन के महत्व, उस समय के भारत की राजनीतिक स्थिति, और कैसे इस एक घटना ने अगले तीन दशकों तक भारतीय राजनीति की नियति तय कर दी, इसका गहराई से विश्लेषण करेंगे।
विषय सूची (Table of Contents) [खोलें/बंद करें]
- गांधी का दक्षिण अफ्रीका का अनुभव (1893-1914)
- 9 जनवरी 1915: बंबई में आगमन
- गोपाल कृष्ण गोखले: गांधी के राजनीतिक गुरु की सलाह
- 1915 का भारत: राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य
- क्यों 'गांधी युग' की शुरुआत मानी जाती है यह घटना?
- प्रवासी भारतीय दिवस: 9 जनवरी का स्थायी महत्व
- निष्कर्ष: एक नए युग का सूत्रपात
- अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
गांधी का दक्षिण अफ्रीका का अनुभव (1893-1914)
यह समझना जरूरी है कि 1915 में भारत लौटने वाले गांधी 45 वर्ष के एक परिपक्व नेता थे, जिनके पास संघर्ष का अपार अनुभव था। जब वे 1893 में एक युवा बैरिस्टर के रूप में दक्षिण अफ्रीका गए, तो उनका उद्देश्य केवल एक कानूनी मामला लड़ना था। लेकिन वहाँ पहुँचते ही उन्हें जिस नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ा (जैसा कि पीटरमैरिट्सबर्ग स्टेशन पर ट्रेन से फेंके जाने की कुख्यात घटना है), उसने उनके जीवन की दिशा बदल दी।
दक्षिण अफ्रीका में 21 वर्षों के दौरान, गांधीजी ने:
- 'सत्याग्रह' का आविष्कार किया: यह 'सत्य के लिए आग्रह' यानी अहिंसक प्रतिरोध का एक शक्तिशाली हथियार था। यह निष्क्रिय प्रतिरोध (passive resistance) से कहीं अधिक था; यह अन्याय के खिलाफ एक सक्रिय, नैतिक और आध्यात्मिक संघर्ष था।
- भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी: उन्होंने वहाँ बसे भारतीयों पर लगाए गए दमनकारी कानूनों, जैसे पंजीकरण प्रमाण पत्र और ३ पाउंड के कर के खिलाफ लंबे और कठिन आंदोलन चलाए। * टॉल्स्टॉय फार्म और फीनिक्स आश्रम की स्थापना की: ये केवल रहने की जगहें नहीं, बल्कि सामुदायिक जीवन, आत्मनिर्भरता और सत्याग्रह के प्रशिक्षण केंद्र थे।
- एक जन नेता बने: उन्होंने विभिन्न धर्मों और वर्गों के भारतीयों को एक साझा उद्देश्य के लिए एकजुट करना सीखा।
दक्षिण अफ्रीका में उनके काम ने उन्हें भारत में एक प्रसिद्ध व्यक्ति बना दिया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता, विशेषकर गोपाल कृष्ण गोखले, उनके काम पर करीब से नजर रखे हुए थे और मानते थे कि गांधी की तकनीकों और नेतृत्व की भारत को सख्त जरूरत है।
9 जनवरी 1915: बंबई में आगमन
9 जनवरी 1915 को, एसएस अरेबिया (S.S. Arabia) नामक जहाज बंबई (अब मुंबई) के अपोलो बंदरगाह पर पहुँचा। गांधीजी और उनकी पत्नी कस्तूरबा का स्वागत करने के लिए हजारों लोगों की भीड़ जमा थी। यह स्वागत अभूतपूर्व था। हालांकि कांग्रेस के कई बड़े नेता वहाँ मौजूद थे, लेकिन असली उत्साह आम जनता में था, जो दक्षिण अफ्रीका के "हीरो" की एक झलक पाना चाहती थी।
गांधीजी उस समय भी अपनी विशिष्ट वेशभूषा (काठियावाड़ी पगड़ी और कुर्ता) में थे। उनके आगमन ने भारतीय राजनीतिक हलकों में एक नई उम्मीद और उत्सुकता पैदा कर दी। हर कोई यह जानना चाहता था कि यह "अहिंसक योद्धा" भारत में क्या करेगा। क्या वह तुरंत राजनीति में कूद पड़ेंगे? क्या वह कांग्रेस में शामिल होंगे? या उनका कोई और रास्ता होगा?
यहाँ यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि उस समय का भारत प्रथम विश्व युद्ध (First World War) के साये में जी रहा था। ब्रिटिश राज ने भारत को अपनी ओर से युद्ध में झोंक दिया था, जिसका गवर्नर-जनरल (वायसराय) लॉर्ड हार्डिंग नेतृत्व कर रहे थे। राजनीतिक माहौल गर्म था, लेकिन एक स्पष्ट दिशा की कमी थी।
गोपाल कृष्ण गोखले: गांधी के राजनीतिक गुरु की सलाह
गांधीजी, गोपाल कृष्ण गोखले को अपना 'राजनीतिक गुरु' मानते थे। गोखले ने ही गांधीजी को भारत वापस आने के लिए प्रेरित किया था। भारत पहुँचने पर गांधीजी सबसे पहले उनसे ही मिले। गोखले, जो उस समय के सबसे सम्मानित उदारवादी (Moderate) नेताओं में से एक थे, ने गांधीजी को एक अमूल्य सलाह दी।
"गोखले ने गांधीजी से कहा कि वे अगले एक वर्ष तक अपने 'कान खुले और मुँह बंद' रखें।"
इसका मतलब था कि गांधीजी को तुरंत किसी भी राजनीतिक मुद्दे पर कोई टिप्पणी या कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। इसके बजाय, उन्हें पूरे भारत का भ्रमण करना चाहिए, देश की वास्तविक स्थिति को समझना चाहिए, आम लोगों की समस्याओं को जानना चाहिए और भारतीय राजनीति की जटिलताओं को महसूस करना चाहिए।
गांधीजी ने अपने गुरु की इस सलाह को अक्षरशः माना। उन्होंने अगले एक साल तक भारत के विभिन्न हिस्सों की यात्रा की। उन्होंने किसानों, मजदूरों, छात्रों और आम नागरिकों से मुलाकात की। यह "भारत खोज" का वर्ष उनके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुआ। इसने उन्हें उस भारत की गहरी समझ दी, जिसका वे भविष्य में नेतृत्व करने वाले थे। दुर्भाग्य से, गांधीजी के आगमन के कुछ ही हफ्तों बाद, फरवरी 1915 में गोखले का निधन हो गया, लेकिन उनकी यह सलाह गांधीजी के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत बन गई।
1915 का भारत: राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य
जब गांधीजी भारत लौटे, तो देश एक चौराहे पर खड़ा था।
- कांग्रेस का विभाजन: 1907 के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस 'नरम दल' (Moderates) और 'गरम दल' (Extremists) में विभाजित हो चुकी थी। नरम दल का मानना था कि संवैधानिक सुधारों और याचिकाओं से आजादी मिलेगी, जबकि गरम दल (जैसे बाल गंगाधर तिलक) का मानना था कि स्वराज के लिए अधिक आक्रामक तरीकों की जरूरत है। 1915 तक, तिलक जेल से रिहा हो चुके थे, लेकिन कांग्रेस अभी भी काफी हद तक एक निष्क्रिय संगठन थी।
- मुस्लिम लीग का उदय: 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हो चुकी थी और 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधारों ने 'पृथक निर्वाचक मंडल' (Separate Electorates) देकर सांप्रदायिक राजनीति के बीज बो दिए थे।
- प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव: ब्रिटिश सरकार ने भारत से सैनिकों और संसाधनों की मांग की, जिसके बदले में युद्ध के बाद 'स्व-शासन' (Self-rule) का अस्पष्ट वादा किया। इससे महंगाई और करों का बोझ आम आदमी पर बढ़ गया था।
- जनता से दूरी: उस समय के अधिकांश राजनीतिक आंदोलन, चाहे वे कांग्रेस के हों या क्रांतिकारी समूहों के, शहरों तक और शिक्षित मध्य वर्ग तक ही सीमित थे। करोड़ों किसानों और मजदूरों की वास्तविक समस्याओं का राजनीति से सीधा जुड़ाव नहीं था।
भारत को एक ऐसे नेता की आवश्यकता थी जो न केवल नरम दल और गरम दल के बीच की खाई को पाट सके, बल्कि राजनीति को अभिजात वर्ग के ड्राइंग रूम से निकालकर गाँवों और खेतों तक ले जा सके।
क्यों 'गांधी युग' की शुरुआत मानी जाती है यह घटना?
गांधीजी का 1915 में आगमन केवल एक घटना नहीं थी, यह एक 'युग की शुरुआत' थी क्योंकि उन्होंने भारतीय राजनीति के मूल चरित्र को ही बदल दिया।
- सत्याग्रह का परिचय: गांधीजी अपने साथ 'सत्याग्रह' और 'अहिंसा' का परीक्षण किया हुआ हथियार लेकर आए। यह एक ऐसा तरीका था जिसमें आम जनता, बिना हथियार उठाए, दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकत को चुनौती दे सकती थी।
- जन-आंदोलन का जन्म: गोखले को दिए वचन के बाद, गांधीजी का पहला बड़ा हस्तक्षेप 1917 में 'चंपारण सत्याग्रह' था। यह तुरंत सफल रहा। इसके बाद 1918 में खेड़ा और अहमदाबाद मिल हड़ताल हुईं। इन आंदोलनों ने दिखाया कि गांधीजी की राजनीति आम किसानों और मजदूरों के मुद्दों पर केंद्रित थी।
- राजनीति का आध्यात्मीकरण: गांधीजी ने राजनीति को नैतिकता और आध्यात्मिकता से जोड़ा। उन्होंने 'सत्य' और 'अहिंसा' को केवल व्यक्तिगत गुण नहीं, बल्कि राजनीतिक उपकरण बनाया। इसने स्वतंत्रता संग्राम को एक नैतिक बल दिया।
- सर्व-समावेशी नेतृत्व: उन्होंने कांग्रेस को एक जन-संगठन में बदल दिया, जिसकी शाखाएँ गाँवों तक पहुँचीं। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता, छुआछूत का विरोध (हरिजनोद्धार) और स्वदेशी को स्वतंत्रता आंदोलन का अभिन्न अंग बनाया।
1915 से 1948 तक, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की हर बड़ी घटना—चाहे वह नेहरू रिपोर्ट (1928) पर बहस हो, सविनय अवज्ञा आंदोलन हो, अगस्त प्रस्ताव (1940) का विरोध हो, क्रिप्स मिशन (1942) की विफलता हो या भारत छोड़ो आंदोलन हो—सबकुछ गांधीजी के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा। उन्होंने ही उस संविधान निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार की, जिसने आधुनिक भारत को आकार दिया।
प्रवासी भारतीय दिवस: 9 जनवरी का स्थायी महत्व
महात्मा गांधी के भारत आगमन की इस ऐतिहासिक तारीख के महत्व को समझते हुए, भारत सरकार ने 2003 से हर साल 9 जनवरी को 'प्रवासी भारतीय दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय लिया।
यह दिन विदेशों में बसे उन भारतीयों (प्रवासियों) को समर्पित है, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में भारत का नाम रौशन किया है। यह दिन इस बात का प्रतीक है कि एक प्रवासी भारतीय (गांधीजी) ने कैसे अपने देश लौटकर उसके भविष्य को बदल दिया। यह दुनिया भर में फैले भारतीय समुदाय को अपनी जड़ों से जोड़ने और भारत के विकास में उनके योगदान को सम्मानित करने का एक अवसर है।
इन्हें भी जानें:
निष्कर्ष: एक नए युग का सूत्रपात
9 जनवरी 1915 को महात्मा गांधी का भारत आगमन, आधुनिक भारतीय इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। यह उस व्यक्ति की वापसी थी जिसने राजनीति की परिभाषा बदल दी—इसे संघर्ष के बजाय 'सत्याग्रह' बना दिया, इसे हिंसा के बजाय 'अहिंसा' का बल दिया, और इसे कुछ चुनिंदा लोगों के बजाय 'सर्वोदय' (सबका उदय) का मिशन बना दिया।
गांधीजी ने उस निष्क्रियता को तोड़ा जो भारतीय राजनीति में घर कर गई थी। उन्होंने स्वतंत्रता की अमूर्त अवधारणा को आम आदमी की रोजमर्रा की तकलीफों (जैसे नमक पर कर, या नील की खेती) से जोड़ा। उनकी वापसी ने एक ऐसी चिंगारी जलाई जिसने अगले 32 वर्षों में एक राष्ट्रव्यापी ज्वाला का रूप ले लिया और अंततः 1947 में भारत की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
प्रश्न 1: महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत कब लौटे?
उत्तर: महात्मा गांधी 9 जनवरी 1915 को दक्षिण अफ्रीका से स्थायी रूप से भारत लौटे। वे बंबई (अब मुंबई) के अपोलो बंदरगाह पर उतरे थे।
प्रश्न 2: प्रवासी भारतीय दिवस क्यों मनाया जाता है?
उत्तर: प्रवासी भारतीय दिवस हर साल 9 जनवरी को मनाया जाता है, क्योंकि इसी दिन 1915 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। यह दिन विदेशों में बसे भारतीयों के भारत के प्रति योगदान को सम्मानित करने के लिए मनाया जाता है।
प्रश्न 3: गांधीजी के राजनीतिक गुरु कौन थे?
उत्तर: गांधीजी गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। गोखले की सलाह पर ही गांधीजी ने भारत लौटने के बाद एक वर्ष तक सक्रिय राजनीति से दूर रहकर पूरे देश का भ्रमण किया।
प्रश्न 4: गांधीजी के भारत आगमन के समय भारत की राजनीतिक स्थिति क्या थी?
उत्तर: 1915 में भारत प्रथम विश्व युद्ध में शामिल था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 'नरम दल' और 'गरम दल' में विभाजित थी और उसका प्रभाव मुख्यतः शिक्षित वर्ग तक सीमित था। 1909 के सुधारों ने सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा दे दिया था। देश में ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष था, लेकिन एक राष्ट्रव्यापी नेतृत्व की कमी थी।
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