🇮🇳 परिचय: 20वां संविधान संशोधन
भारतीय संविधान का 20वां संशोधन अधिनियम, 1966, भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और संकट-समाधान संशोधन था। यह संशोधन मुख्य रूप से अनुच्छेद 233A को संविधान में जोड़ने के लिए लाया गया था। इसकी आवश्यकता तब पड़ी जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में जिला न्यायाधीशों की कुछ नियुक्तियों को असंवैधानिक घोषित कर दिया। इस निर्णय से एक अभूतपूर्व न्यायिक संकट उत्पन्न हुआ, क्योंकि उन न्यायाधीशों द्वारा दिए गए सभी निर्णय अमान्य होने का खतरा था। 20वें संशोधन ने इन नियुक्तियों और उनके द्वारा किए गए कार्यों को 'पूर्वव्यापी' प्रभाव से वैधता प्रदान की।
🟧 पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक संदर्भ
इस संशोधन की जड़ें अनुच्छेद 233 और अनुच्छेद 235 में निहित हैं:
- अनुच्छेद 233: राज्यपाल जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति उच्च न्यायालय के परामर्श से करता है।
- अनुच्छेद 235: उच्च न्यायालय को अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण का अधिकार देता है।
चंद्र मोहन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1966): सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में की गई कुछ नियुक्तियों को असंवैधानिक बताया क्योंकि वे न्यायिक सेवा के अंतर्गत नहीं आती थीं। इससे प्रशासनिक अराजकता की स्थिति बनी, क्योंकि ऐसे जजों द्वारा दिए गए हजारों फैसले शून्य घोषित हो सकते थे।
🟨 प्रस्ताव और पारित होने की प्रक्रिया
- विधेयक संख्या: 89 (1966)
- कानून मंत्री: श्री जी.एस. पाठक
- लोकसभा पारित: 3 दिसंबर 1966
- राज्यसभा पारित: 9 दिसंबर 1966
- राष्ट्रपति की स्वीकृति: 22 दिसंबर 1966 (डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन)
यह एक आवश्यकता-आधारित संशोधन था, जिसे न्यायिक अराजकता से बचने के लिए तेजी से पारित किया गया।
🟩 प्रमुख प्रावधान: अनुच्छेद 233A का समावेश
20वें संशोधन ने संविधान में अनुच्छेद 233A जोड़ा। इसके तीन मुख्य बिंदु थे:
- नियुक्तियों का मान्यकरण: 1966 से पहले नियुक्त जिला न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ अब अवैध नहीं मानी जाएंगी।
- निर्णयों का मान्यकरण: ऐसे जजों द्वारा दिए गए सभी निर्णय और आदेश वैध माने जाएंगे।
- पूर्वव्यापी प्रभाव: यह संशोधन अतीत में किए गए कार्यों पर भी लागू हुआ।
🟦 उद्देश्य और लक्ष्य
- न्यायिक अराजकता को रोकना।
- जनहित की रक्षा और मामलों की वैधता बनाए रखना।
- न्यायपालिका की निरंतरता और स्थिरता सुनिश्चित करना।
- तकनीकी खामियों से न्याय को विफल होने से रोकना।
🟧 प्रभाव और परिणाम
- न्यायिक संकट तुरंत समाप्त हुआ।
- अवैध घोषित नियुक्तियाँ और उनके निर्णय वैध हुए।
- संविधान में ‘पूर्वव्यापी कानून’ की अवधारणा स्थापित हुई।
- भविष्य में न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया अधिक सख्त हुई।
🟨 आलोचना और न्यायिक दृष्टिकोण
- न्यायिक स्वतंत्रता का अतिक्रमण: कुछ लोगों ने कहा कि संसद ने न्यायपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप किया।
- बैकडोर वैधता: इसे सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने का अप्रत्यक्ष तरीका माना गया।
- खराब मिसाल: यह डर रहा कि भविष्य में सरकार बार-बार संविधान में संशोधन कर सकती है।
हालांकि, न्यायपालिका ने इसे एक 'आवश्यकता' के रूप में स्वीकार किया और माना कि यह केवल एक बार की वैधता थी।
🟩 ऐतिहासिक महत्व
यह संशोधन भारतीय संविधान की ‘लचीलापन’ (Flexibility) और ‘जीवंतता’ (Living nature) का उदाहरण है। यह दिखाता है कि संविधान अप्रत्याशित परिस्थितियों से निपटने में सक्षम है। यह संशोधन अक्सर UPSC और अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं में “अनुच्छेद 233A” या “District Judges Appointment” के संदर्भ में पूछा जाता है।
🟦 20वां संविधान संशोधन: एक नजर में
| शीर्षक | विवरण |
|---|---|
| संशोधन संख्या | 20वां संविधान संशोधन अधिनियम |
| वर्ष | 1966 |
| लागू होने की तिथि | 22 दिसंबर 1966 |
| प्रधानमंत्री | श्रीमती इंदिरा गांधी |
| राष्ट्रपति | डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन |
| मुख्य उद्देश्य | सुप्रीम कोर्ट द्वारा अवैध घोषित न्यायाधीशों की नियुक्तियों को पूर्वव्यापी वैधता देना। |
| मुख्य बदलाव | नया अनुच्छेद 233A जोड़ा गया। |
🟧 निष्कर्ष
20वां संविधान संशोधन एक ‘आवश्यकता आधारित’ सुधार था जिसने न्यायपालिका को प्रशासनिक संकट से बचाया। यह दिखाता है कि संविधान न केवल अधिकार देता है बल्कि संकट में व्यवस्था को स्थिर रखने की क्षमता भी रखता है।
🟩 अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
प्रश्न 1: 20वां संविधान संशोधन कब पारित हुआ?
उत्तर: 22 दिसंबर 1966 को राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद लागू हुआ।
प्रश्न 2: इसका मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर: अवैध घोषित जिला न्यायाधीशों की नियुक्तियों और उनके निर्णयों को वैध बनाना।
प्रश्न 3: कौन सा नया अनुच्छेद जोड़ा गया?
उत्तर: अनुच्छेद 233A।
प्रश्न 4: उस समय प्रधानमंत्री कौन थीं?
उत्तर: श्रीमती इंदिरा गांधी।
प्रश्न 5: यह संशोधन किस मामले के बाद आया?
उत्तर: चंद्र मोहन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1966)।
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