विषय सूची (Table of Contents):
- परिचय: 19वां संशोधन क्या था?
- पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक संदर्भ (चुनाव अधिकरणों की आवश्यकता क्यों पड़ी)
- प्रस्ताव और पारित होने की प्रक्रिया
- संशोधन के प्रमुख प्रावधान (अनुच्छेद 324 में बदलाव)
- उद्देश्य और विधायी इरादा
- प्रभाव और परिणाम (उच्च न्यायालयों की नई भूमिका)
- न्यायिक व्याख्या, समीक्षा और आलोचना
- ऐतिहासिक महत्व (चुनावी सुधारों में मील का पत्थर)
- सारांश तालिका (Quick Summary)
- निष्कर्ष
- अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
🟩 2️⃣ परिचय
भारतीय संविधान का 19वां संशोधन अधिनियम, 1966 (19th Constitutional Amendment Act, 1966), भारत की चुनावी न्याय प्रणाली में एक मौलिक सुधार था। इस संशोधन का केंद्रीय और एकमात्र उद्देश्य संसद और राज्य विधानमंडलों के सदस्यों से संबंधित चुनाव याचिकाओं (Election Petitions) के निपटारे की मौजूदा व्यवस्था को बदलना था। इसके द्वारा, चुनाव विवादों के निपटारे के लिए स्थापित की गई 'चुनाव अधिकरण' (Election Tribunals) की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया और यह शक्ति सीधे राज्यों के उच्च न्यायालयों (High Courts) को सौंप दी गई। यह परिवर्तन चुनावी सुधारों की दिशा में एक मील का पत्थर था, जिसका लक्ष्य न्यायिक प्रक्रिया को मजबूत करना, देरी को कम करना और राजनीतिक हस्तक्षेप की संभावनाओं को समाप्त करना था।
🟧 3️⃣ पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक संदर्भ (Historical Background & Context)
19वां संशोधन लाने की आवश्यकता भारत की तत्कालीन चुनाव विवाद समाधान (Election Dispute Resolution) प्रक्रिया की गंभीर कमियों से उत्पन्न हुई थी।
मूल संविधान की व्यवस्था (Original Constitutional Provision)
जब 1950 में संविधान लागू हुआ, तो निर्माताओं ने चुनावी विवादों के लिए एक विशेष तंत्र की परिकल्पना की थी। मूल संविधान के अनुच्छेद 324(1) में यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि चुनावों के संचालन, निर्देशन और नियंत्रण के अलावा, चुनाव आयोग को "संसद तथा राज्य विधान-मंडलों के निर्वाचनों के बारे में या उनसे संसक्त शंकाओं और विवादों के विनिश्चय के लिए निर्वाचन अधिकरणों की नियुक्ति भी" करने की शक्ति होगी।
इस प्रावधान के तहत, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act, 1951) ने विस्तृत प्रक्रिया निर्धारित की। जब भी कोई चुनाव याचिका दायर की जाती थी, तो चुनाव आयोग मामले की सुनवाई के लिए एक 'चुनाव अधिकरण' (Election Tribunal) नियुक्त करता था, जिसमें आमतौर पर एक से तीन सदस्य (अक्सर सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायाधीश) होते थे।
मौजूदा प्रणाली के साथ समस्याएं
पहले तीन आम चुनावों (1952, 1957, 1962) के बाद, यह व्यवस्था कई गंभीर समस्याओं से घिर गई:
- अत्यधिक देरी (Excessive Delays): ये अधिकरण तदर्थ (ad-hoc) निकाय थे, जिनका गठन केवल चुनाव याचिकाओं के लिए होता था। इनकी प्रक्रिया अक्सर बेहद धीमी और लंबी खिंच जाती थी। कई मामलों में, याचिका का निपटारा होने से पहले ही निर्वाचित सदस्य अपना लगभग पूरा 5 साल का कार्यकाल पूरा कर लेता था। इससे याचिका का मूल उद्देश्य ही विफल हो जाता था।
- राजनीतिक प्रभाव की आशंका: चूंकि ये स्थायी न्यायिक निकाय नहीं थे और इनकी नियुक्ति (भले ही न्यायिक सदस्यों की हो) चुनाव आयोग के माध्यम से होती थी, इसलिए उनकी पूर्ण निष्पक्षता पर सवाल उठते थे और राजनीतिक प्रभाव की आशंका बनी रहती थी।
- असंगत निर्णय और अस्थिरता: अलग-अलग अधिकरणों द्वारा एक जैसे मामलों में अलग-अलग कानूनी विचार रखने की संभावना रहती थी, जिससे कानूनी अनिश्चितता पैदा होती थी।
- संसाधनों की बर्बादी: हर चुनाव के बाद देश भर में सैकड़ों तदर्थ अधिकरणों का गठन करना एक जटिल और संसाधन-गहन प्रक्रिया थी।
सुधार की मांग
स्वयं भारत के चुनाव आयोग (Election Commission of India) ने इस प्रणाली की विफलताओं को स्वीकार किया और इसमें आमूल-चूल परिवर्तन की सिफारिश की। आयोग का स्पष्ट मत था कि चुनाव विवाद, जो अनिवार्य रूप से न्यायिक प्रकृति के होते हैं, उन्हें तदर्थ निकायों के बजाय स्थायी और स्थापित न्यायिक संस्थानों द्वारा ही सुना जाना चाहिए। 1960 के दशक के मध्य तक, यह आम सहमति बन चुकी थी कि इस प्रक्रिया को अधिक कुशल, निष्पक्ष और तीव्र बनाने की तत्काल आवश्यकता है। इसी पृष्ठभूमि ने 19वें संविधान संशोधन की नींव रखी।
🟨 4️⃣ प्रस्ताव और पारित होने की प्रक्रिया (Proposal & Passage Process)
यह संशोधन चुनाव आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा पेश किया गया था। इसका उद्देश्य चुनावी न्याय को स्थायी न्यायिक निकायों को सौंपना था।
- संशोधन विधेयक का नाम: संविधान (उन्नीसवाँ संशोधन) विधेयक, 1966 (Constitution (Nineteenth Amendment) Bill, 1966)
- लोकसभा में प्रस्तुति: 29 अगस्त, 1966 को तत्कालीन कानून मंत्री जी.एस. पाठक (G.S. Pathak) द्वारा पेश किया गया।
- लोकसभा द्वारा पारित: 22 नवंबर, 1966
- राज्यसभा द्वारा पारित: 30 नवंबर, 1966
- राष्ट्रपति की स्वीकृति: 11 दिसंबर, 1966 (तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा)
- लागू होने की तिथि (Enforcement Date): 11 दिसंबर, 1966
संसद में इस विधेयक पर ज्यादा विवाद या बहस नहीं हुई। यह एक प्रक्रियात्मक सुधार था जिस पर व्यापक राजनीतिक सहमति थी। विपक्ष ने भी इस कदम का स्वागत किया क्योंकि यह चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता और निष्पक्षता बढ़ाने वाला था। इसे संसद के दोनों सदनों द्वारा संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत आवश्यक विशेष बहुमत (सदन की कुल सदस्यता का बहुमत और उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत) से आसानी से पारित कर दिया गया।
🟩 5️⃣ संशोधन के प्रमुख प्रावधान (Key Provisions of the Amendment)
19वां संविधान संशोधन बहुत ही केंद्रित (focused) और संक्षिप्त था। इसने संविधान के केवल एक अनुच्छेद में एक छोटा लेकिन अत्यंत प्रभावशाली बदलाव किया।
मुख्य प्रावधान: अनुच्छेद 324 (क्लॉज 1) में संशोधन
इस संशोधन ने भारत के चुनाव आयोग की शक्तियों और कार्यों से संबंधित अनुच्छेद 324 के खंड (1) को सीधे तौर पर संशोधित किया।
- संशोधन से पहले की स्थिति:
अनुच्छेद 324(1) के मूल पाठ में लिखा था कि चुनाव आयोग में चुनावों के संचालन, निर्देशन और नियंत्रण के अलावा "...तथा संसद् तथा राज्य विधान-मंडलों के निर्वाचनों के बारे में या उनसे संसक्त शंकाओं और विवादों के विनिश्चय के लिए निर्वाचन अधिकरणों की नियुक्ति भी" की शक्ति निहित होगी। - संशोधन के बाद की स्थिति:
19वें संशोधन ने अनुच्छेद 324(1) से निम्नलिखित शब्दों को हटा दिया (deleted):
"...तथा संसद् तथा राज्य विधान-मंडलों के निर्वाचनों के बारे में या उनसे संसक्त शंकाओं और विवादों के विनिश्चय के लिए निर्वाचन अधिकरणों की नियुक्ति भी"
(In English: "...and the appointment of election tribunals for the decision of doubts and disputes arising out of or in connection with elections to Parliament and to the Legislatures of States")
इस बदलाव का वास्तविक अर्थ और परिणाम
संविधान से इन शब्दों को हटाने के दो प्रत्यक्ष परिणाम हुए:
- चुनाव अधिकरणों की संवैधानिक समाप्ति: संविधान से ही चुनाव अधिकरणों की नियुक्ति का प्रावधान समाप्त कर दिया गया, जिससे इस व्यवस्था का अंत हो गया।
- चुनाव आयोग की शक्तियों में परिवर्तन: चुनाव आयोग से चुनाव विवादों के निपटारे के लिए अधिकरण नियुक्त करने की संवैधानिक शक्ति और दायित्व वापस ले लिया गया।
संबद्ध वैधानिक परिवर्तन (Consequential Statutory Change)
केवल संविधान संशोधन पर्याप्त नहीं था; एक वैधानिक रिक्ति (statutory vacuum) को भरना भी आवश्यक था। इसलिए, इस संशोधन के पूरक के रूप में, संसद ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act, 1951) में भी महत्वपूर्ण संशोधन किए।
- इस अधिनियम में यह नया प्रावधान जोड़ा गया कि संसद या राज्य विधानमंडल के किसी भी चुनाव को चुनौती देने वाली कोई भी 'चुनाव याचिका' (Election Petition) अब सीधे संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय (High Court) में दायर की जाएगी।
- इस प्रकार, चुनाव याचिका पर निर्णय देने का 'मूल क्षेत्राधिकार' (Original Jurisdiction) तदर्थ अधिकरणों से छीनकर स्थायी उच्च न्यायालयों को दे दिया गया।
🟦 6️⃣ उद्देश्य और लक्ष्य (Objectives and Legislative Intent)
19वें संशोधन को लाने के पीछे सरकार और चुनाव आयोग का विधायी इरादा (Legislative Intent) स्पष्ट, तर्कसंगत और प्रगतिशील था।
- शीघ्र न्याय सुनिश्चित करना (Ensuring Speedy Justice): सबसे प्रमुख उद्देश्य चुनाव याचिकाओं के निपटारे में होने वाली अत्यधिक देरी को समाप्त करना था। यह माना गया कि उच्च न्यायालय, अपनी स्थायी न्यायिक मशीनरी, स्थापित प्रक्रियाओं और न्यायाधीशों के साथ, इन मामलों का निपटारा अधिक तेजी से कर सकते हैं।
- न्यायिक निष्पक्षता और स्वतंत्रता बढ़ाना (Enhancing Judicial Impartiality): विवादों को तदर्थ और अर्ध-न्यायिक निकायों से हटाकर सीधे उच्च न्यायालयों जैसे स्वतंत्र और स्थायी न्यायिक निकायों को सौंपने का उद्देश्य, प्रक्रिया की निष्पक्षता को उच्चतम स्तर पर ले जाना और किसी भी राजनीतिक या कार्यकारी प्रभाव की आशंका को समाप्त करना था।
- कानूनी विशेषज्ञता का लाभ उठाना (Leveraging Legal Expertise): चुनाव कानून (Election Law) में अक्सर कानून और तथ्यों के जटिल प्रश्न शामिल होते हैं। यह सुनिश्चित करना एक लक्ष्य था कि इन जटिल मामलों का निर्णय उच्च न्यायालय के अनुभवी न्यायाधीशों द्वारा किया जाए, न कि अस्थायी अधिकरणों द्वारा।
- चुनावी सुधारों को लागू करना (Implementing Electoral Reforms): यह संशोधन चुनाव आयोग द्वारा की गई प्रमुख सिफारिशों में से एक को लागू करने के लिए लाया गया था, ताकि भारत में चुनावी लोकतंत्र की जड़ों को गहरा किया जा सके और चुनावी प्रक्रिया की शुचिता (sanctity) को बढ़ाया जा सके।
- प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना (Streamlining the Process): देश भर में सैकड़ों अधिकरणों के गठन और प्रबंधन की जटिल प्रक्रिया को समाप्त करके, विवाद समाधान के लिए एक एकल, मानकीकृत और सुव्यवस्थित मंच (यानी, प्रत्येक राज्य में उच्च न्यायालय) प्रदान करना।
🟧 7️⃣ प्रभाव और परिणाम (Impact and Outcomes)
19वें संशोधन का भारतीय चुनावी प्रणाली और न्यायपालिका पर तत्काल और दूरगामी प्रभाव पड़ा।
- चुनाव अधिकरणों की संस्था का अंत: इसका सबसे तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि 1951 से चली आ रही चुनाव अधिकरणों की संस्था पूरी तरह से समाप्त हो गई।
- उच्च न्यायालयों के क्षेत्राधिकार में वृद्धि: राज्यों के उच्च न्यायालयों को चुनाव याचिकाओं पर सुनवाई का मूल क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction) प्राप्त हो गया। यह उनके काम के बोझ में एक महत्वपूर्ण वृद्धि थी, लेकिन इसने चुनाव विवादों को एक उच्च न्यायिक प्रतिष्ठा प्रदान की।
- न्यायिक प्रक्रिया का मानकीकरण: चूंकि उच्च न्यायालय नागरिक प्रक्रिया संहिता (Code of Civil Procedure) और साक्ष्य अधिनियम (Evidence Act) जैसी स्थापित न्यायिक प्रक्रियाओं का पालन करते हैं, इसलिए चुनाव याचिकाओं के निपटारे में एकरूपता और मानकीकरण आया।
- अपील का स्पष्ट मार्ग (Clear Appeal Hierarchy): इस व्यवस्था ने अपील के लिए एक स्पष्ट और व्यवस्थित पदानुक्रम (hierarchy) स्थापित किया। अब उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील (Special Leave Petition - SLP) सीधे सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) में की जा सकती थी (अनुच्छेद 136 के तहत)। पहले की प्रणाली में अपील प्रक्रिया कम स्पष्ट थी।
- न्यायिक समीक्षा का केंद्र बनना: इस कदम ने उच्च न्यायालयों को चुनावी कदाचार की न्यायिक समीक्षा के केंद्र में ला दिया, जिसने बाद के दशकों में भारतीय लोकतंत्र को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- विवाद निपटारे में सापेक्षिक तेजी: हालांकि उच्च न्यायालयों पर काम का बोझ था, फिर भी तदर्थ अधिकरणों की तुलना में मामलों के निपटारे में सापेक्षिक तेजी देखी गई, क्योंकि स्थायी न्यायाधीशों की उपलब्धता सुनिश्चित थी।
🟨 8️⃣ न्यायिक व्याख्या, समीक्षा और आलोचना (Judicial Review, Interpretation & Criticism)
19वां संशोधन अपने आप में न्यायिक समीक्षा या बड़े विवादों का विषय नहीं बना, क्योंकि इसे लगभग सार्वभौमिक रूप से एक सकारात्मक और आवश्यक प्रक्रियात्मक सुधार के रूप में देखा गया।
न्यायिक व्याख्या
इस संशोधन को कभी भी "संविधान की मूल संरचना" (Basic Structure) के सिद्धांत के उल्लंघन के लिए चुनौती नहीं दी गई। वास्तव में, यह सिद्धांत (जो 1973 में 'केशवानंद भारती' मामले में स्थापित हुआ) से पहले ही पारित हो गया था।
न्यायपालिका ने इस कदम का स्वागत किया क्योंकि इसने चुनाव विवादों को पूरी तरह से न्यायिक क्षेत्र में ला दिया था। इस संशोधन का सबसे महत्वपूर्ण न्यायिक परिणाम इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975) के ऐतिहासिक मामले में देखने को मिला। 1971 के चुनावों के बाद राज नारायण द्वारा दायर की गई चुनाव याचिका की सुनवाई 19वें संशोधन द्वारा स्थापित नई प्रक्रिया के तहत ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय में हुई थी। यह उच्च न्यायालय ही था जिसने अंततः प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को अमान्य घोषित कर दिया, जिसने देश में आपातकाल (Emergency) की घटनाओं को जन्म दिया। इस प्रकार, 19वें संशोधन ने अनजाने में ही सही, भारत के सबसे महत्वपूर्ण संवैधानिक क्षणों में से एक की नींव रखी थी।
आलोचना और चुनौतियां
इस संशोधन की सीधी आलोचना कम ही हुई, लेकिन इसके कार्यान्वयन से जुड़ी कुछ व्यावहारिक चुनौतियां समय के साथ सामने आईं:
- उच्च न्यायालयों पर बढ़ता बोझ: सबसे बड़ी और निरंतर आलोचना यह रही है कि उच्च न्यायालय, जो पहले से ही लाखों लंबित मामलों के भारी बोझ तले दबे हैं, पर चुनाव याचिकाओं का अतिरिक्त भार पड़ गया।
- देरी की समस्या पूर्णतः समाप्त नहीं हुई: हालांकि अधिकरणों की तुलना में स्थिति में सुधार हुआ, फिर भी न्यायिक प्रक्रिया की जटिलताओं के कारण, कई चुनाव याचिकाएं उच्च न्यायालयों और फिर सर्वोच्च न्यायालय में अपील प्रक्रिया में कई वर्षों तक लंबित रहती हैं। अक्सर, याचिका का अंतिम निर्णय आने तक उस सदन का कार्यकाल समाप्त हो चुका होता है।
🟩 9️⃣ ऐतिहासिक महत्व (Historical Significance)
भारतीय संविधान के विकास यात्रा में 19वें संशोधन का एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान है, भले ही यह 42वें या 44वें संशोधन जितना राजनीतिक रूप से चर्चित न हो।
- चुनावी न्याय का न्यायिकरण (Judicialisation of Electoral Justice): इसका सबसे बड़ा ऐतिहासिक महत्व यह है कि इसने 'चुनावी न्याय' (Electoral Justice) को तदर्थ, अर्ध-न्यायिक निकायों के हाथ से निकालकर स्थायी, स्वतंत्र और उच्च न्यायिक निकायों (उच्च न्यायालयों) को सौंप दिया। यह "कानून के शासन" (Rule of Law) के सिद्धांत की एक बड़ी जीत थी।
- लोकतंत्र में विश्वास की बहाली: इसने यह सुनिश्चित करके भारतीय लोकतंत्र में जनता के विश्वास को मजबूत किया कि चुनावों में किसी भी धांधली, कदाचार या विवाद का फैसला देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्थाओं में से एक द्वारा किया जाएगा, न कि किसी अस्थायी समिति द्वारा।
- एक स्थायी और सफल व्यवस्था की स्थापना: यह संशोधन इतना सफल और उपयुक्त साबित हुआ कि 1966 में स्थापित की गई यह व्यवस्था आज (2025) तक लगभग छह दशकों से बिना किसी बड़े बदलाव के जारी है। आज भी सांसद (MP) और विधायकों (MLA) की चुनाव याचिकाएं सीधे उच्च न्यायालय में ही दायर होती हैं। यह इसकी दूरदर्शिता का प्रमाण है।
- आपातकाल की प्रस्तावना: जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, इसने वह न्यायिक मंच (इलाहाबाद उच्च न्यायालय) प्रदान किया, जिसके एक फैसले ने भारतीय राजनीति की दिशा हमेशा के लिए बदल दी।
🟦 1️⃣0️⃣ सारांश तालिका (Quick Summary Table)
| शीर्षक | विवरण |
| संशोधन संख्या | संविधान (उन्नीसवाँ संशोधन) अधिनियम |
| वर्ष | 1966 |
| लागू होने की तिथि | 11 दिसंबर, 1966 |
| तत्कालीन प्रधानमंत्री | श्रीमती इंदिरा गांधी |
| तत्कालीन राष्ट्रपति | डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन |
| मुख्य उद्देश्य | चुनाव याचिकाओं के निपटारे के लिए 'चुनाव अधिकरण' (Election Tribunals) की व्यवस्था को समाप्त करना। |
| प्रमुख बदलाव (संवैधानिक) | अनुच्छेद 324(1) से 'चुनाव अधिकरणों की नियुक्ति' से संबंधित शब्दों को हटा दिया गया। |
| प्रमुख बदलाव (वैधानिक) | जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन करके चुनाव याचिकाओं की सुनवाई का अधिकार उच्च न्यायालयों को दिया गया। |
🟧 1️⃣1️⃣ निष्कर्ष (Conclusion)
भारतीय संविधान का 19वां संशोधन, हालांकि तकनीकी प्रकृति का था, लेकिन यह भारत के चुनावी लोकतंत्र को परिपक्व बनाने की दिशा में एक अत्यंत महत्वपूर्ण कदम था। यह एक प्रक्रियात्मक सुधार से कहीं अधिक था; यह चुनावी न्याय को राजनीतिक प्रभाव की किसी भी दूरस्थ संभावना से हटाकर सीधे न्यायपालिका के स्वतंत्र और स्थायी संरक्षण में रखने का एक सचेत और सैद्धांतिक निर्णय था। चुनाव अधिकरणों को समाप्त करके और उच्च न्यायालयों को सशक्त बनाकर, इस संशोधन ने चुनावी विवादों के निपटारे में अधिक विशेषज्ञता, निष्पक्षता और दक्षता सुनिश्चित की। यह आज भी भारतीय चुनावी प्रणाली की रीढ़ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना हुआ है और लोकतंत्र में न्यायिक निष्पक्षता के महत्व को रेखांकित करता है।
🟩 1️⃣2️⃣ अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
प्रश्न 1: भारतीय संविधान का 19वां संशोधन कब पारित हुआ था?
उत्तर: 19वां संविधान संशोधन अधिनियम 11 दिसंबर, 1966 को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद लागू हुआ। इसे लोकसभा ने 22 नवंबर और राज्यसभा ने 30 नवंबर, 1966 को पारित किया था।
प्रश्न 2: 19वें संशोधन का मुख्य उद्देश्य क्या था?
उत्तर: इसका मुख्य और एकमात्र उद्देश्य संसद (सांसदों) और राज्य विधानमंडलों (विधायकों) के चुनावों से संबंधित विवादों या 'चुनाव याचिकाओं' की सुनवाई के लिए बनाए जाने वाले 'चुनाव अधिकरण' (Election Tribunals) की व्यवस्था को समाप्त करना था।
प्रश्न 3: 19वें संशोधन ने किस अनुच्छेद में बदलाव किया?
उत्तर: इसने संविधान के अनुच्छेद 324 के खंड (1) में संशोधन किया। इसने उस खंड से वे शब्द हटा दिए जो चुनाव आयोग को चुनाव अधिकरणों की नियुक्ति करने की शक्ति देते थे।
प्रश्न 4: 19वें संशोधन से पहले चुनाव याचिका कौन सुनता था?
उत्तर: 19वें संशोधन से पहले, चुनाव याचिकाओं की सुनवाई के लिए चुनाव आयोग द्वारा 'चुनाव अधिकरण' (Election Tribunals) नियुक्त किए जाते थे, जो तदर्थ (ad-hoc) निकाय होते थे।
प्रश्न 5: 19वें संशोधन के बाद चुनाव याचिकाएं कहाँ दायर की जाती हैं?
उत्तर: 19वें संशोधन के लागू होने के बाद, (जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत) चुनाव याचिकाएं अब सीधे संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय (High Court) में दायर की जाती हैं।
प्रश्न 6: 19वें संशोधन के समय भारत के प्रधानमंत्री कौन थे?
उत्तर: 1966 में 19वें संशोधन के पारित होने के समय भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी थीं।
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