दिल्ली और आगरा पर ब्रिटिश नियंत्रण

भारतीय इतिहास के पन्नों में 1805 का वर्ष एक ऐसे निर्णायक मोड़ के रूप में दर्ज है, जिसने भारत के राजनीतिक मानचित्र को हमेशा के लिए बदल दिया। यह वह समय था जब मराठा शक्ति का सूर्य अस्त हो रहा था और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का वर्चस्व उत्तर भारत में पूरी तरह स्थापित हो चुका था। द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803-1805) की समाप्ति के साथ ही दिल्ली और आगरा जैसे ऐतिहासिक शहरों पर अंग्रेजों का नियंत्रण पक्का हो गया।

दिल्ली और आगरा पर ब्रिटिश नियंत्रण

क्या आप जानते हैं कि 1805 में युद्ध की समाप्ति केवल एक सैन्य जीत नहीं थी, बल्कि यह उस क्षण का प्रतीक था जब मुगल बादशाह वास्तव में अंग्रेजों के 'पेंशनर' बन गए? इस लेख में, हम 1805 की घटनाओं, दिल्ली-आगरा विजय की कहानी और इसके दूरगामी प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण करेंगे।

1. संघर्ष की पृष्ठभूमि: 1803 से 1805 तक का सफर

1805 की घटनाओं को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे मुड़कर देखना होगा। द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध की शुरुआत 1802 की 'बेसिन की संधि' से हुई थी, जब पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अपनी गद्दी बचाने के लिए अंग्रेजों की शरण ली थी। मराठा सरदारों—विशेषकर सिंधिया और भोंसले—ने इस अधीनता को स्वीकार नहीं किया, जिसके परिणामस्वरूप 1803 में युद्ध छिड़ गया।

लॉर्ड वेलेजली (Lord Wellesley) की विस्तारवादी नीति और जनरल लेक (General Lake) की सैन्य कुशलता ने मराठों को कई मोर्चों पर हराया। जहाँ 1803 के अंत तक सिंधिया और भोंसले ने संधियाँ कर ली थीं (देवगाँव और सुरजी-अंजनगाँव की संधि), वहीं जसवंत राव होल्कर अभी भी अजेय थे। 1805 का वर्ष मुख्य रूप से होल्कर के साथ संघर्ष और युद्ध के औपचारिक समापन का गवाह बना।

2. दिल्ली और आगरा: सत्ता का केंद्र और ब्रिटिश विजय

दिल्ली और आगरा केवल शहर नहीं थे, वे 'हिंदुस्तान' की सत्ता के प्रतीक थे। 1805 तक आते-आते इन दोनों शहरों पर ब्रिटिश नियंत्रण पूरी तरह से सुदृढ़ हो चुका था। यह प्रक्रिया कैसे पूरी हुई, इसे समझना आवश्यक है:

आगरा का पतन (The Fall of Agra)

आगरा का किला, जिसे 'हिंदुस्तान की चाबी' कहा जाता था, रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण था। जनरल लेक ने बड़ी कुशलता से आगरा पर कब्जा किया था। 1805 में युद्ध समाप्ति के समय, आगरा अंग्रेजों के लिए उत्तर भारत में सबसे बड़ा सैन्य डिपो और खजाना बन चुका था। यहाँ से लूटे गए खजाने और तोपों ने कंपनी की आर्थिक स्थिति को काफी मजबूत किया।

दिल्ली और 'बैटल ऑफ पटपड़गंज'

दिल्ली पर मराठा सरदार दौलतराव सिंधिया का नियंत्रण था। जनरल लेक ने दिल्ली के पास (वर्तमान पटपड़गंज इलाके में) मराठा सेना को निर्णायक रूप से हराया। हालाँकि यह लड़ाई 1803 में लड़ी गई थी, लेकिन 1805 वह वर्ष था जब होल्कर द्वारा दिल्ली को पुनः जीतने का प्रयास विफल कर दिया गया। 1805 में कर्नल ऑक्टरलोनी (Colonel Ochterlony) ने होल्कर के हमले से दिल्ली की सफलतापूर्वक रक्षा की, जिससे यह सिद्ध हो गया कि अब दिल्ली पर 'यूनियन जैक' ही लहराएगा।

3. जसवंत राव होल्कर और अंतिम संघर्ष (1804-1805)

1804 से 1805 के बीच का समय अंग्रेजों के लिए सबसे कठिन रहा। जसवंत राव होल्कर, जिन्हें 'मराठों का नेपोलियन' भी कहा जाता है, ने अपनी गुरिल्ला युद्ध नीति से अंग्रेजों को नाको चने चबवा दिए।

  • कर्नल मॉन्सन की वापसी: होल्कर ने कर्नल मॉन्सन की सेना को पीछे हटने पर मजबूर किया, जिससे अंग्रेजों की प्रतिष्ठा को भारी धक्का लगा।
  • भरतपुर का घेरा (Siege of Bharatpur, 1805): 1805 की शुरुआत में, जनरल लेक ने भरतपुर के जाट राजा रंजीत सिंह (जो होल्कर के सहयोगी थे) के किले पर हमला किया। लेकिन, भरतपुर का लोहागढ़ किला अभेद्य साबित हुआ। लेक को चार बार असफल हमलों के बाद भारी नुकसान उठाना पड़ा।

यह 1805 की ही घटना थी जिसने ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टर्स को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि अब युद्ध को समाप्त करना ही बेहतर है। इसी कारण गवर्नर-जनरल लॉर्ड वेलेजली को वापस बुला लिया गया।

4. 1805 की संधियाँ और युद्ध की समाप्ति

वेलेजली के जाने के बाद लॉर्ड कॉर्नवालिस (Lord Cornwallis) दोबारा भारत आए, लेकिन उनकी मृत्यु गाजीपुर में हो गई। इसके बाद सर जॉर्ज बार्लो (Sir George Barlow) ने कमान संभाली। बार्लो ने 'अहस्तक्षेप की नीति' (Policy of Non-intervention) अपनाई और 1805 के अंत में शांति स्थापित करने के लिए संधियाँ कीं।

संधि का नाम किसके बीच प्रमुख प्रावधान
राजघाट की संधि (Treaty of Rajghat) अंग्रेज और जसवंत राव होल्कर (दिसंबर 1805) होल्कर को उनका राज्य वापस मिला, लेकिन उन्हें चंबल नदी के उत्तर के दावों को छोड़ना पड़ा।
सिंधिया के साथ नई संधि अंग्रेज और दौलतराव सिंधिया ग्वालियर और गोहद के किले सिंधिया को वापस सौंप दिए गए ताकि शांति बनी रहे।

इन संधियों के साथ ही द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध 1805 में आधिकारिक रूप से समाप्त हो गया। यद्यपि अंग्रेजों ने शांति के लिए कुछ क्षेत्र लौटा दिए, लेकिन दिल्ली, आगरा और दोआब (गंगा-यमुना के बीच का क्षेत्र) पर उनका नियंत्रण स्थायी हो गया।

5. मुगल बादशाह: संप्रभुता से पेंशनभोगी तक

1805 की घटना का सबसे दुखद और महत्वपूर्ण पहलू मुगल साम्राज्य की स्थिति थी। उस समय मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय (Shah Alam II) थे, जो नाममात्र के सम्राट थे और वास्तव में मराठों के संरक्षण में थे।

दिल्ली पर अंग्रेजों के कब्जे और युद्ध समाप्ति के बाद निम्नलिखित बदलाव हुए:

  • मुगल बादशाह ने अब मराठों के बजाय ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार कर लिया।
  • अंग्रेजों ने घोषणा की कि वे बादशाह का सम्मान करेंगे, लेकिन प्रशासनिक शक्तियाँ अपने हाथ में ले लीं।
  • शाह आलम द्वितीय ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले पेंशनर बन गए। उन्हें अपने खर्च के लिए एक निश्चित वार्षिक राशि दी जाने लगी।
  • दिल्ली का प्रशासन एक ब्रिटिश 'रेजीडेंट' (Resident) के अधीन कर दिया गया।

यह एक ऐतिहासिक विडंबना थी कि जिस दिल्ली तख्त के लिए सदियों तक युद्ध लड़े गए, 1805 के बाद वह केवल लाल किले की चारदीवारी तक सिमट कर रह गया।

6. इस घटनाक्रम का ऐतिहासिक महत्व

1805 में युद्ध की समाप्ति और दिल्ली-आगरा पर नियंत्रण के महत्व को निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:

  1. उत्तर भारत में एकाधिकार: अब बंगाल से लेकर दिल्ली तक का पूरा उपजाऊ मैदानी इलाका अंग्रेजों के सीधे नियंत्रण में था।
  2. मराठा संघ का विघटन: मराठा सरदार अब आपस में बंट गए थे और अलग-अलग अंग्रेजों से संधियाँ कर चुके थे। उनका संयुक्त मोर्चा टूट चुका था।
  3. भविष्य की नींव: 1805 की शांति ने अंग्रेजों को अगले कुछ वर्षों तक अपनी शक्ति को संगठित करने का मौका दिया, जिससे वे बाद में (1817-1819 में) मराठा शक्ति को पूरी तरह खत्म कर सके।
  4. सामरिक बढ़त: आगरा और दिल्ली पर कब्जे से अंग्रेजों को उत्तर-पश्चिम सीमा (जहां से विदेशी आक्रमणों का खतरा रहता था) की निगरानी करने में मदद मिली।

7. निष्कर्ष

निष्कर्षतः, 1805 का वर्ष भारतीय इतिहास में संक्रमण का काल था। यद्यपि युद्ध समाप्त हो गया था, लेकिन इसने भारत की गुलामी की जंजीरों को और मजबूत कर दिया था। दिल्ली और आगरा पर 'यूनियन जैक' का फहराना केवल दो शहरों का पतन नहीं था, बल्कि यह प्राचीन भारतीय राजनीति के अंत और आधुनिक औपनिवेशिक शासन के पूर्ण उदय की घोषणा थी।

जसवंत राव होल्कर का प्रतिरोध और भरतपुर का साहस यह बताते हैं कि भारतीय शक्तियों में अभी भी लड़ने का जज्बा था, लेकिन आपसी फूट और अंग्रेजों की बेहतर कूटनीति के आगे वे टिक नहीं सके। 1805 ने यह तय कर दिया कि आने वाली सदी अंग्रेजों की होगी।

8. अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध कब समाप्त हुआ?

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध आधिकारिक रूप से 1805 में राजघाट की संधि (होल्कर के साथ) के द्वारा समाप्त हुआ।

1805 में दिल्ली का मुगल बादशाह कौन था?

1805 में दिल्ली के मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय थे, जो अंग्रेजों के संरक्षण में आ गए और पेंशनर बन गए।

किस संधि के तहत होल्कर के साथ युद्ध समाप्त हुआ?

दिसंबर 1805 में हुई 'राजघाट की संधि' (Treaty of Rajghat) के तहत जसवंत राव होल्कर और अंग्रेजों के बीच युद्ध समाप्त हुआ।

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