भारतीय इतिहास में तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (Third Anglo-Maratha War) एक निर्णायक मोड़ था, जिसने न केवल एक शक्तिशाली साम्राज्य का अंत किया, बल्कि पूरे भारत पर ब्रिटिश प्रभुत्व की नींव भी रख दी। यह 1817 से 1819 के बीच ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा महासंघ के बीच लड़ा गया अंतिम और निर्णायक संघर्ष था।
मुगल साम्राज्य के पतन के बाद पैदा हुए शून्य को भरने वाली सबसे बड़ी शक्ति मराठा ही थे, लेकिन पश्चिम से आई इस व्यापारिक कंपनी से वर्चस्व की लड़ाई में वे पिछड़ गए। यह युद्ध केवल कुछ लड़ाइयों का समूह नहीं था, बल्कि यह भारत के भाग्य का फैसला करने वाला एक ऐसा अध्याय था जिसने भारतीय उपमहाद्वीप का नक्शा हमेशा के लिए बदल दिया।
विषय सूची (Table of Contents)
युद्ध की पृष्ठभूमि: सुलगती चिंगारी
तीसरे युद्ध की जड़ें पहले और दूसरे आंग्ल-मराठा युद्धों में ही थीं। विशेष रूप से 1802 की 'बसीन की संधि' के बाद, पेशवा नाममात्र के लिए ही स्वतंत्र रह गए थे और фактически (de facto) अंग्रेजों के अधीन आ चुके थे। मराठा संघ, जिसमें पेशवा (पुणे), सिंधिया (ग्वालियर), होल्कर (इंदौर), गायकवाड़ (बड़ौदा) और भोंसले (नागपुर) शामिल थे, अपनी पुरानी एकता और शक्ति खो चुका था।
मराठा सरदार 'सहायक संधि' (Subsidiary Alliance) के जाल में फँसकर कमजोर हो गए थे। पेशवा बाजीराव द्वितीय, जो पूना में अंग्रेजों के बढ़ते हस्तक्षेप से घुट रहे थे, अपनी खोई हुई सत्ता और सम्मान को फिर से पाने के लिए बेचैन थे। इसी समय, 1813 में भारत के गवर्नर-जनरल बनकर आए लॉर्ड हेस्टिंग्स एक घोर साम्राज्यवादी थे और भारत में 'ब्रिटिश सर्वोपरि सत्ता' (British Paramountcy) स्थापित करना चाहते थे। यह तनावपूर्ण माहौल ही तीसरे और अंतिम युद्ध की भूमिका तैयार कर रहा था।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के प्रमुख कारण
यह युद्ध किसी एक घटना का परिणाम नहीं था, बल्कि इसके पीछे कई जटिल राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य कारण थे:
लॉर्ड हेस्टिंग्स की साम्राज्यवादी नीति
लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813-1823) का स्पष्ट मानना था कि भारत में शांति तभी हो सकती है जब ईस्ट इंडिया कंपनी सर्वोच्च शक्ति हो। उन्होंने मराठों को पूरी तरह से कुचलने और उनके क्षेत्रों को ब्रिटिश नियंत्रण में लाने की एक सोची-समझी योजना बनाई, जो सीधे टकराव का कारण बनी।
पिंडारियों का दमन: एक तात्कालिक कारण
पिंडारी कौन थे? पिंडारी एक लड़ाकू समूह या अनियमित सैनिकों के गिरोह थे, जो पहले मराठा सेनाओं के साथ मिलकर लूटपाट करते थे। जब मराठा शक्ति कमजोर हुई, तो वे मध्य भारत और राजपूताना में स्वतंत्र रूप से लूटमार करने लगे और ब्रिटिश इलाकों पर भी हमला करने लगे।
लॉर्ड हेस्टिंग्स ने 'पिंडारियों के दमन' को एक बहाना बनाया। इसे ही युद्ध का तात्कालिक कारण माना जाता है। इस अभियान के नाम पर, हेस्टिंग्स ने लगभग 1,20,000 सैनिकों की एक विशाल सेना इकट्ठी की। वास्तव में, यह अभियान केवल पिंडारियों के खिलाफ नहीं था, बल्कि मराठा सरदारों (विशेषकर सिंधिया और होल्कर) को घेरने की एक सैन्य चाल थी, जिन्होंने पिंडारियों को शरण दे रखी थी। मराठों ने इसे अपनी संप्रभुता पर सीधा हमला माना।
पेशवा बाजीराव द्वितीय का असंतोष और पूना की संधि (1817)
पेशवा बाजीराव द्वितीय अंग्रेजों के नियंत्रण से मुक्त होना चाहते थे और उन्होंने गुप्त रूप से अन्य मराठा सरदारों को एकजुट करने का प्रयास किया। जब अंग्रेजों को इसकी भनक लगी, तो उन्होंने पेशवा पर भारी दबाव डाला और जून 1817 में उनसे एक नई और अपमानजनक 'पूना की संधि' (Treaty of Poona) पर हस्ताक्षर करवाए।
- इस संधि ने पेशवा को मराठा संघ की अध्यक्षता छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।
- उन्हें कई महत्वपूर्ण किले और क्षेत्र अंग्रेजों को सौंपने पड़े।
- पेशवा पर अंग्रेजों की अनुमति के बिना किसी अन्य राज्य से संपर्क करने पर भी रोक लगा दी गई।
यह संधि पेशवा के लिए अंतिम अपमान थी और अब उनके पास "करो या मरो" के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था।
मराठा सरदारों में आपसी फूट
मराठा साम्राज्य की सबसे बड़ी कमजोरी उनकी आंतरिक फूट थी। सिंधिया, होल्कर, भोंसले और गायकवाड़, ये सभी बड़े सरदार अपने-अपने स्वार्थों के लिए लड़ रहे थे। उनमें एकता का घोर अभाव था। अंग्रेजों ने उनकी इसी 'फूट डालो और राज करो' की नीति का पूरा फायदा उठाया।
युद्ध का घटनाक्रम और प्रमुख लड़ाइयाँ
पूना की अपमानजनक संधि के कुछ ही महीनों बाद, पेशवा बाजीराव द्वितीय ने धैर्य खो दिया और निर्णायक कदम उठा लिया।
युद्ध की शुरुआत: पूना रेजीडेंसी पर हमला
नवंबर 1817 में, पेशवा बाजीराव द्वितीय ने पूना में ब्रिटिश रेजीडेंसी पर हमला कर उसे जला दिया। यहीं से तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध की औपचारिक शुरुआत हुई।
खड़की, सीताबल्डी और महीदपुर की हार
पेशवा की सेना ने 5 नवंबर 1817 को पुणे के पास खड़की (Kirkee) में तैनात एक छोटी ब्रिटिश टुकड़ी पर हमला किया, लेकिन उन्हें बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। पेशवा को पूना छोड़कर भागना पड़ा।
पेशवा से प्रेरित होकर, नागपुर के अप्पा साहिब भोंसले ने भी विद्रोह कर दिया, लेकिन उन्हें सीताबल्डी (Sitabuldi) के युद्ध में हार का सामना करना पड़ा। इसी तरह, दिसंबर 1817 में, मल्हारराव होल्कर (तृतीय) की सेना को महीदपुर (Mahidpur) के युद्ध में अंग्रेजों ने निर्णायक रूप से हराया।
कोरेगांव की निर्णायक लड़ाई (Battle of Koregaon)
1 जनवरी 1818 को लड़ी गई कोरेगांव (भिमा) की लड़ाई इस युद्ध की सबसे चर्चित और निर्णायक लड़ाइयों में से एक है। इसमें पेशवा की लगभग 28,000 सैनिकों की विशाल सेना का मुकाबला बॉम्बे नेटिव इन्फेंट्री की एक छोटी सी टुकड़ी (लगभग 800-900 सैनिक, जिनमें मुख्यतः 'महार' समुदाय के लोग थे) से हुआ।
संख्याबल में बहुत कम होने के बावजूद, ब्रिटिश सेना ने असाधारण वीरता दिखाते हुए पेशवा की सेना को पूरे दिन रोके रखा। पेशवा इस छोटी टुकड़ी को हराने में विफल रहे और उन्हें पीछे हटना पड़ा। इस लड़ाई ने पेशवा का मनोबल पूरी तरह से तोड़ दिया।
आष्टी का युद्ध और पेशवा का आत्मसमर्पण
पेशवा ने कुछ और प्रयास किए, लेकिन फरवरी 1818 में आष्टी (Ashti) के युद्ध में अंतिम हार के बाद उनकी शक्ति पूरी तरह समाप्त हो गई। अंततः, जून 1818 में पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। हालांकि, छिटपुट संघर्ष 1819 तक चलते रहे।
प्रमुख अपमानजनक संधियाँ
युद्ध के दौरान और बाद में, अंग्रेजों ने मराठा सरदारों पर कई संधियाँ थोपीं, जिन्होंने मराठा शक्ति को पूरी तरह से समाप्त कर दिया:
- पूना की संधि (जून 1817): पेशवा पर थोपी गई, जिसने उन्हें मराठा संघ से अलग कर दिया।
- ग्वालियर की संधि (नवंबर 1817): दौलतराव शिंदे को इस पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया, जिसके तहत वे पिंडारियों के खिलाफ अंग्रेजों का साथ देंगे और राजस्थान पर अपना प्रभाव समाप्त कर देंगे।
- मंदसौर की संधि (जनवरी 1818): महीदपुर में हार के बाद होल्कर ने इस संधि को स्वीकार किया। उन्होंने राजपूत राज्यों पर अपने सभी अधिकार छोड़ दिए और ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार कर लिया।
युद्ध के दूरगामी परिणाम
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के परिणाम दूरगामी और भारत के लिए युगांतकारी साबित हुए:
मराठा साम्राज्य का अंत और पेशवा पद की समाप्ति
युद्ध के परिणामस्वरूप मराठा महासंघ पूरी तरह से विघटित हो गया।
- अंग्रेजों ने 'पेशवा' के पद को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया।
- अंतिम पेशवा, बाजीराव द्वितीय को एक बड़ी पेंशन देकर पूना से बहुत दूर, उत्तर भारत में कानपुर के पास बिठूर भेज दिया गया, जहाँ 1853 में उनकी मृत्यु हो गई।
- पेशवा के अधिकांश क्षेत्रों को सीधे ब्रिटिश 'बॉम्बे प्रेसीडेंसी' में मिला लिया गया।
- भोंसले (नागपुर), होल्कर (इंदौर) और सिंधिया (ग्वालियर) ने अपनी बची-खुची स्वतंत्रता भी खो दी और वे अब केवल ब्रिटिश-आश्रित 'रियासतों' के राजा बनकर रह गए।
- अंग्रेजों ने सतारा में शिवाजी के वंशज को एक छोटी सी रियासत का नाममात्र का राजा बना दिया।
ब्रिटिश सर्वोच्चता की स्थापना
मराठा साम्राज्य का पतन भारत में ब्रिटिश राज की स्थापना में अंतिम बाधा का हटना था। मराठों के हारने के बाद, भारत में कोई भी ऐसी देसी शक्ति नहीं बची थी जो अंग्रेजों को चुनौती दे सके। राजपूताना और मध्य भारत के राज्यों ने भी एक-एक कर अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली। इस युद्ध ने भारत में "ब्रिटिश सर्वोपरि सत्ता" (British Paramountcy) को निर्विवाद रूप से स्थापित कर दिया।
💡 इन्हें भी पढ़ें (Related Posts)
मराठों की हार के मुख्य कारण
मराठों की विशाल शक्ति के बावजूद उनकी हार के पीछे कई स्पष्ट कारण थे:
- आपसी फूट और एकता का अभाव: मराठा सरदार (होल्कर, सिंधिया, भोंसले) अक्सर आपस में ही लड़ते रहते थे। उनमें एकता का घोर अभाव था, जिसका अंग्रेजों ने भरपूर फायदा उठाया।
- कमजोर और अयोग्य नेतृत्व: मराठों के पास महादजी शिंदे या नाना फड़नवीस जैसे दूरदर्शी और योग्य नेताओं की कमी थी। पेशवा बाजीराव द्वितीय एक कमजोर और षड्यंत्रकारी शासक साबित हुए।
- कमजोर सैन्य रणनीति: मराठों ने अपनी पारंपरिक और सफल 'गुरिल्ला युद्ध' शैली को छोड़कर यूरोपीय शैली में आमने-सामने लड़ने की कोशिश की, जिसमें वे अंग्रेजों की अनुशासित सेना और आधुनिक तोपखाने का मुकाबला नहीं कर सके।
- राजनयिक विफलता: मराठा सरदार अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों और 'फूट डालो और राज करो' की नीति को समझने में असफल रहे और एक-एक करके उनके जाल में फंसते चले गए।
- आर्थिक कमजोरी: अंग्रेजों की तुलना में मराठों के पास राजस्व और संसाधनों की कमी थी, जिससे वे एक लंबा युद्ध नहीं लड़ सकते थे।
निष्कर्ष: एक युग का अंत
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1817-1819) ने उस महान मराठा साम्राज्य का दुखद अंत कर दिया, जिसने कभी दिल्ली के तख्त को भी नियंत्रित किया था। यह हार मराठों की आंतरिक कमजोरियों और अंग्रेजों की संगठित सैन्य व कूटनीतिक शक्ति का परिणाम थी।
इस युद्ध के साथ ही भारत में मध्यकाल का लगभग अंत हो गया और आधुनिक औपनिवेशिक युग की शुरुआत हुई, जिसका सूरज अगले सौ वर्षों से भी अधिक समय तक भारत में अस्त नहीं हुआ।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
प्रश्न 1: तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध कब हुआ?
उत्तर: यह युद्ध 1817 से 1819 के बीच लड़ा गया था। इसकी औपचारिक शुरुआत नवंबर 1817 में हुई थी।
प्रश्न 2: इस युद्ध के समय भारत का गवर्नर-जनरल कौन था?
उत्तर: इस युद्ध के दौरान लॉर्ड हेस्टिंग्स (Lord Hastings) भारत के गवर्नर-जनरल थे।
प्रश्न 3: अंतिम मराठा पेशवा कौन थे?
उत्तर: पेशवा बाजीराव द्वितीय अंतिम मराठा पेशवा थे। युद्ध में हार के बाद अंग्रेजों ने उन्हें पेंशन देकर बिठूर भेज दिया था।
प्रश्न 4: इस युद्ध का तात्कालिक कारण क्या था?
उत्तर: इसका तात्कालिक कारण लॉर्ड हेस्टिंग्स द्वारा 'पिंडारियों के दमन' के नाम पर एक विशाल सेना खड़ी करना था, जिसे मराठों ने अपनी संप्रभुता पर हमला माना। पेशवा द्वारा पूना की संधि को तोड़ना और रेजीडेंसी पर हमला करना युद्ध की शुरुआत थी।
प्रश्न 5: मराठा साम्राज्य का पतन क्यों हुआ?
उत्तर: मराठा साम्राज्य के पतन के मुख्य कारण मराठा सरदारों में आपसी फूट, एकता की कमी, कमजोर नेतृत्व, पुरानी सैन्य रणनीति और अंग्रेजों की बेहतर कूटनीति और सैन्य अनुशासन थे।
प्रश्न 6: कोरेगांव की लड़ाई का क्या महत्व है?
उत्तर: कोरेगांव की लड़ाई (1 जनवरी 1818) ने पेशवा की सेना का मनोबल तोड़ दिया। कम संख्या में होने के बावजूद ब्रिटिश सेना को हराने में विफलता ने पेशवा की सैन्य कमजोरी को उजागर कर दिया और उनकी हार लगभग तय कर दी।
📜 भारत के संविधान और राजनीति से जुड़ी सभी पोस्ट देखें
संविधान के अनुच्छेद, संशोधन, भाग, अनुसूचियाँ और भारतीय राजनीति के हर विषय पर विस्तृत जानकारी — सब कुछ एक ही जगह।
🔗 सम्पूर्ण Sitemap देखें© PrashnaPedia | भारतीय संविधान और राजनीति ज्ञानकोश
.jpeg)
0 टिप्पणियाँ