प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-82) | 1st Anglo-Maratha War

18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, जब भारत की राजनीतिक शक्ति का केंद्र बदल रहा था, तब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और शक्तिशाली मराठा साम्राज्य के बीच सत्ता के लिए संघर्षों की एक श्रृंखला शुरू हुई। इनमें प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775–1782) पहला और सबसे महत्वपूर्ण संघर्ष था। यह युद्ध न केवल दो शक्तियों के बीच सैन्य टकराव था, बल्कि यह कूटनीति, विश्वासघात और महत्वाकांक्षा की एक जटिल कहानी भी थी। इस युद्ध ने भारत के भविष्य के राजनीतिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित किया और यह तीन आंग्ल-मराठा युद्धों में से पहला था, जिसने अंततः भारत में ब्रिटिश शासन की नींव रखी।

                                                         

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775–1782)

पृष्ठभूमि (Historical Background)

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध की जड़ें मराठा साम्राज्य के आंतरिक संघर्षों में निहित थीं। 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में हार और पेशवा बालाजी बाजीराव की मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य एक संकट के दौर से गुज़र रहा था। उनके पुत्र माधवराव प्रथम एक योग्य शासक थे, जिन्होंने मराठा शक्ति को फिर से संगठित किया, लेकिन 1772 में उनकी असामयिक मृत्यु ने सत्ता के लिए एक नया संघर्ष छेड़ दिया।

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माधवराव के छोटे भाई नारायणराव अगले पेशवा बने, लेकिन उनके चाचा रघुनाथराव (राघोबा) की महत्वाकांक्षाओं के कारण 1773 में उनकी हत्या कर दी गई। रघुनाथराव खुद पेशवा बनना चाहते थे, लेकिन मराठा दरबार के প্রভাবশালী मंत्री नाना फड़णवीस के नेतृत्व में एक गुट, जिसे "बारभाई परिषद" कहा जाता था, ने उनका विरोध किया। उन्होंने नारायणराव के नवजात पुत्र, सवाई माधवराव को वैध पेशवा घोषित कर दिया। इस आंतरिक विवाद ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को मराठा राजनीति में हस्तक्षेप करने का सुनहरा अवसर प्रदान किया, जो (जैसा कि रेग्युलेटिंग एक्ट 1773 से स्पष्ट था) अपनी विस्तारवादी नीति को आगे बढ़ाने के लिए उत्सुक थी।

युद्ध के कारण (Causes of the First Anglo-Maratha War)

इस युद्ध के पीछे कई महत्वपूर्ण कारण थे, जो मराठाओं के आंतरिक मामलों और अंग्रेज़ों की विस्तार नीति से जुड़े थे:

       
  • पेशवा उत्तराधिकार का विवाद: युद्ध का तात्कालिक कारण पेशवा पद के लिए रघुनाथराव और सवाई माधवराव के समर्थकों के बीच का विवाद था। रघुनाथराव ने अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए बाहरी मदद लेने का फैसला किया।
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  • 1775 की सूरत संधि (Treaty of Surat): सत्ता से बेदखल होने के बाद, रघुनाथराव ने बॉम्बे में ब्रिटिशों से मदद मांगी। मार्च 1775 में, उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ सूरत संधि पर हस्ताक्षर किए। इस संधि के तहत, ब्रिटिशों ने रघुनाथराव को पेशवा बनाने में सैन्य मदद देने का वादा किया, जिसके बदले में रघुनाथराव ने उन्हें सालसेट और बेसिन (वसई) के महत्वपूर्ण क्षेत्र देने का वादा किया।
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  • मराठा सरदारों का विरोध: नाना फड़णवीस के नेतृत्व में मराठा सरदारों ने इस संधि को मराठा साम्राज्य के आंतरिक मामलों में एक बाहरी हस्तक्षेप माना और इसका कड़ा विरोध किया।
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  • अंग्रेज़ों की भारत में विस्तार नीति: बंगाल में अपनी पकड़ मजबूत करने के बाद, ब्रिटिश अब पश्चिम भारत में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते थे। मराठा साम्राज्य उस समय भारत की सबसे बड़ी शक्ति थी, और उसे नियंत्रित करना ब्रिटिशों के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण था। यह युद्ध उनकी इसी विस्तार नीति का एक हिस्सा था।

प्रमुख घटनाएँ (Major Events of the War)

सूरत संधि के बाद 1775 में युद्ध की शुरुआत हुई। ब्रिटिश सेना ने रघुनाथराव की ओर से पुणे पर चढ़ाई कर दी। प्रारंभिक झड़पों में अंग्रेज़ों को कुछ सफलता मिली, लेकिन वे मराठा शक्ति का सही अनुमान लगाने में विफल रहे।

मराठा सेना का नेतृत्व दो असाधारण व्यक्तियों के हाथ में था - कूटनीतिकार नाना फड़णवीस और महान सेनापति महादजी शिंदे। उन्होंने मिलकर एक प्रभावी रणनीति बनाई। युद्ध का सबसे निर्णायक मोड़ 1779 में आया, जिसे वडगांव की लड़ाई (Battle of Wadgaon) के नाम से जाना जाता है।

महादजी शिंदे ने अपनी सेना का उपयोग करते हुए पुणे की ओर बढ़ रही ब्रिटिश सेना को तलेगांव के पास घेर लिया। उन्होंने "झुलसी हुई पृथ्वी" (scorched earth) की नीति अपनाई, जिससे अंग्रेज़ों की रसद और आपूर्ति लाइनें कट गईं। बिना भोजन और पानी के फंसी ब्रिटिश सेना के पास आत्मसमर्पण के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। यह ब्रिटिश सेना की एक शर्मनाक हार थी और उन्होंने मराठों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।

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महत्वपूर्ण संधियाँ (Important Treaties)

इस युद्ध के दौरान और अंत में तीन महत्वपूर्ण संधियाँ हुईं:

(a) सूरत संधि (1775)

यह संधि युद्ध का कारण बनी। यह रघुनाथराव और ब्रिटिशों के बीच हुई थी। इसके तहत अंग्रेज़ों को रघुनाथराव को पेशवा बनाने में मदद करनी थी और बदले में उन्हें सालसेट और बेसिन का अधिकार मिलना था। हालांकि, कलकत्ता में स्थित ब्रिटिश गवर्नर-जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने इस संधि को अस्वीकार कर दिया, लेकिन तब तक बॉम्बे प्रेसीडेंसी युद्ध शुरू कर चुकी थी

(b) वडगांव संधि (1779)

वडगांव में ब्रिटिशों की शर्मनाक हार के बाद यह संधि हुई। महादजी शिंदे ने अंग्रेज़ों को इस संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया। इस संधि के अनुसार, अंग्रेज़ों को 1773 के बाद जीते गए सभी मराठा क्षेत्रों को वापस करना था और रघुनाथराव को मराठों को सौंपना था। यह संधि ब्रिटिश प्रतिष्ठा के लिए एक बड़ा झटका थी, और वॉरेन हेस्टिंग्स ने इसे भी मानने से इनकार कर दिया, जिससे युद्ध जारी रहा।

(c) सालबाई संधि (1782)

लंबी लड़ाई के बाद, जब कोई भी पक्ष निर्णायक जीत हासिल नहीं कर पा रहा था, तो दोनों पक्षों ने शांति के लिए बातचीत शुरू की। 1782 में सालबाई संधि पर हस्ताक्षर हुए, जिसने अंततः युद्ध समाप्त किया। इस संधि की मुख्य शर्तें थीं:

       
  • अंग्रेज़ों ने सवाई माधवराव को पेशवा के रूप में स्वीकार कर लिया और रघुनाथराव का समर्थन छोड़ दिया।
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  • रघुनाथराव को पेंशन दी गई।
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  • अंग्रेज़ों को सालसेट द्वीप अपने पास रखने का अधिकार मिला।
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  • मराठों ने वादा किया कि वे फ्रांसीसियों को अपने क्षेत्र में बसने की अनुमति नहीं देंगे।

इस संधि ने अगले 20 वर्षों तक अंग्रेज़ों और मराठों के बीच शांति स्थापित की।

युद्ध के परिणाम (Results of the War)

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के परिणाम मिश्रित थे, लेकिन इसने कई महत्वपूर्ण बातें स्पष्ट कर दीं:

       
  • ब्रिटिश प्रतिष्ठा को गहरा आघात: वडगांव की हार ने यह साबित कर दिया कि ब्रिटिश अजेय नहीं थे। यह एक भारतीय शक्ति द्वारा उनकी सबसे बड़ी पराजयों में से एक थी।
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  • मराठों की सैन्य शक्ति का प्रदर्शन: इस युद्ध ने महादजी शिंदे जैसे सेनापतियों और नाना फड़णवीस जैसे कूटनीतिज्ञों के नेतृत्व में मराठों की एकता और सैन्य कौशल का प्रदर्शन किया।
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  • रघुनाथराव का अंत: रघुनाथराव की पेशवा बनने की महत्वाकांक्षा पूरी तरह से समाप्त हो गई और उनका राजनीतिक करियर खत्म हो गया।
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  • भविष्य के युद्धों की नींव: हालांकि सालबाई संधि ने शांति स्थापित की, लेकिन अंग्रेज़ अपनी हार को भूले नहीं थे। उन्होंने मराठा संघ की कमजोरियों को समझ लिया था और भविष्य में उनसे निपटने के लिए एक नई रणनीति की नींव रखी।

प्रभाव और ऐतिहासिक महत्व (Impact and Historical Significance)

इस युद्ध का भारतीय इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसने यह स्पष्ट कर दिया कि मराठा साम्राज्य अभी भी भारत की एक प्रमुख शक्ति था, जिसे आसानी से हराया नहीं जा सकता था। भारत में ब्रिटिश नीति पर इसका सीधा प्रभाव पड़ा; उन्होंने महसूस किया कि मराठों को सीधे टकराव में हराना मुश्किल था, इसलिए उन्होंने "फूट डालो और राज करो" की नीति को और अधिक प्रभावी ढंग से अपनाना शुरू कर दिया। इस युद्ध के बाद ब्रिटिश संसद ने भारत में कंपनी के मामलों पर नियंत्रण बढ़ाने के लिए पिट्स इंडिया एक्ट 1784 पारित किया।

यह युद्ध मराठों की एकता और कूटनीतिक सफलता का एक उत्कृष्ट उदाहरण था। हालांकि, यह एकता अस्थायी साबित हुई। इस युद्ध के अनुभव ने ब्रिटिश साम्राज्य को अपनी रणनीतिक पुनर्रचना करने के लिए मजबूर किया और आने वाले द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (1803–1805) और तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार की, जिसमें स्थितियाँ काफी बदल चुकी थीं।

निष्कर्ष (Conclusion)

निष्कर्षतः, प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (1775-1782) भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यह मराठा साम्राज्य के आंतरिक संघर्षों और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं का परिणाम था। यद्यपि युद्ध का अंत सालबाई की संधि के साथ एक तरह के गतिरोध में हुआ, लेकिन इसे मराठों की एक नैतिक और कूटनीतिक जीत माना जाता है। इस संघर्ष ने मराठों की ताकत को प्रदर्शित किया और ब्रिटिशों को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया। यह युद्ध भारत के इतिहास में ब्रिटिश-विरोधी भावना और भारतीय शक्तियों के प्रतिरोध का एक आरंभिक प्रतीक था।

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सामान्य प्रश्न (FAQs) — SEO Booster Section

    

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध कब हुआ था?

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध 1775 से 1782 तक चला था।

    

इस युद्ध के मुख्य कारण क्या थे?

इस युद्ध का मुख्य कारण मराठा साम्राज्य में पेशवा पद के लिए उत्तराधिकार का विवाद था, जिसमें रघुनाथराव ने अंग्रेज़ों से मदद मांगी और उनके साथ सूरत की संधि (1775) कर ली। अंग्रेज़ों की विस्तारवादी नीति भी एक प्रमुख कारण थी।

    

वडगांव संधि क्या थी?

वडगांव संधि (1779) एक ऐसी संधि थी जो वडगांव में ब्रिटिश सेना की हार के बाद मराठों और अंग्रेज़ों के बीच हुई थी। यह अंग्रेज़ों के लिए एक अपमानजनक संधि थी, जिसमें उन्हें जीते हुए सभी क्षेत्र वापस करने पड़े थे।

    

सालबाई संधि किसके बीच हुई थी?

सालबाई संधि (1782) ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के प्रतिनिधियों (महादजी शिंदे के माध्यम से) के बीच हुई थी। इस संधि ने प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध को समाप्त किया।

    

इस युद्ध का परिणाम क्या हुआ?

युद्ध का परिणाम एक तरह से गतिरोध था, लेकिन कूटनीतिक रूप से यह मराठों के पक्ष में था। सालबाई की संधि के तहत यथास्थिति बहाल की गई, अंग्रेज़ों ने सवाई माधवराव को पेशवा माना और अगले 20 वर्षों के लिए दोनों पक्षों के बीच शांति स्थापित हुई।

 

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