भारतीय संविधान का दूसरा संशोधन अधिनियम, 1952 (2nd Constitutional Amendment Act, 1952), भारत के युवा गणराज्य के शुरुआती दिनों में किए गए पहले कुछ संशोधनों में से एक था। पहले संविधान संशोधन के विपरीत, जो मौलिक अधिकारों जैसे विवादास्पद विषयों से संबंधित था, दूसरा संशोधन प्रकृति में काफी हद तक तकनीकी लेकिन बेहद आवश्यक था।
विषय सूची (Table of Contents)
- 1. परिचय: एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण संवैधानिक कदम
- 2. पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक संदर्भ: 1951 की जनगणना
- 3. मूल संवैधानिक प्रावधान: अनुच्छेद 81 और 750,000 की सीमा
- 4. समस्या: जनगणना के आँकड़े और संवैधानिक बाधा
- 5. दूसरे संशोधन की आवश्यकता क्यों पड़ी?
- 6. प्रस्ताव और पारित होने की प्रक्रिया
- 7. संशोधन के प्रमुख प्रावधान: अनुच्छेद 81(1)(b) में बदलाव
- 8. उद्देश्य और लक्ष्य: परिसीमन का मार्ग प्रशस्त करना
- 9. प्रभाव और परिणाम: लोकसभा सीटों का पुनर्गठन
- 10. आलोचना और संसदीय बहस
- 11. ऐतिहासिक महत्व: संविधान का लचीलापन
- 12. सारांश तालिका
- 13. निष्कर्ष
- 14. अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. परिचय: एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण संवैधानिक कदम
यह संशोधन मुख्य रूप से लोकसभा (House of the People) में राज्यों के प्रतिनिधित्व के पैमाने को समायोजित करने से संबंधित था। इसने संविधान के अनुच्छेद 81 (Article 81) में एक मामूली बदलाव किया, जिसने भारत की बढ़ती आबादी के आलोक में संसदीय क्षेत्रों के उचित परिसीमन (Delimitation) को सुनिश्चित करने के लिए एक बड़ी बाधा को दूर कर दिया। भले ही यह संशोधन छोटा था, लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण था कि भारत की लोकतांत्रिक संरचना व्यावहारिक और कार्यात्मक बनी रहे।
2. पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक संदर्भ: 1951 की जनगणना
26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ। 1951-52 में भारत ने अपना पहला आम चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न कराया। यह चुनाव 1941 की जनगणना के आधार पर आंशिक रूप से समायोजित आंकड़ों पर आधारित था, क्योंकि 1951 की जनगणना के अंतिम आंकड़े अभी प्रक्रिया में थे।
1951 में, स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना (Census) की गई। जब इसके आंकड़े सामने आए, तो यह स्पष्ट हो गया कि देश की आबादी संविधान निर्माताओं के अनुमानों की तुलना में काफी बढ़ गई थी। संविधान ने यह अनिवार्य किया था कि लोकसभा में सीटों का आवंटन और प्रत्येक राज्य के भीतर निर्वाचन क्षेत्रों का विभाजन नवीनतम जनगणना के आंकड़ों के आधार पर किया जाना चाहिए।
इस प्रक्रिया को पूरा करने के लिए, सरकार ने परिसीमन आयोग (Delimitation Commission) की स्थापना की योजना बनाई। इस आयोग का काम 1951 की जनगणना के आधार पर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से परिभाषित करना था। लेकिन, जब अधिकारियों ने इस प्रक्रिया को शुरू करने का प्रयास किया, तो वे सीधे संविधान के एक प्रावधान से टकरा गए।
3. मूल संवैधानिक प्रावधान: अनुच्छेद 81 और 750,000 की सीमा
दूसरे संशोधन की जड़ को समझने के लिए, हमें मूल अनुच्छेद 81 को देखना होगा जैसा कि वह 1950 में लिखा गया था।
मूल अनुच्छेद 81(1) ने लोकसभा की संरचना को इस प्रकार परिभाषित किया:
- (a) इसमें अधिकतम 500 सदस्य होंगे जो राज्यों में क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों से सीधे चुने जाएंगे।
- (b) इस उद्देश्य के लिए, राज्यों को निर्वाचन क्षेत्रों में इस तरह विभाजित किया जाएगा कि "प्रत्येक 750,000 की आबादी के लिए एक सदस्य से कम नहीं होगा"। (not less than one member for every 750,000 of the population)
इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 81(3) में कहा गया है कि "प्रत्येक जनगणना के पूरा होने पर, लोकसभा में विभिन्न राज्यों को सीटों के आवंटन और प्रत्येक राज्य के निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन को ऐसे प्राधिकारी द्वारा... समायोजित किया जाएगा... जैसा कि संसद कानून द्वारा निर्धारित करे।"
4. समस्या: जनगणना के आँकड़े और संवैधानिक बाधा
यहां दोहरी समस्या उत्पन्न हुई:
- अनुच्छेद 81(1)(a) ने लोकसभा के लिए 500 सीटों की ऊपरी सीमा (Maximum Limit) तय कर दी।
- अनुच्छेद 81(1)(b) ने 750,000 आबादी प्रति सांसद की एक न्यूनतम सीमा (या यों कहें कि एक निर्वाचन क्षेत्र के आकार पर ऊपरी सीमा) तय कर दी। "प्रत्येक 750,000 के लिए एक सदस्य से कम नहीं" का प्रभावी अर्थ यह था कि कोई भी निर्वाचन क्षेत्र 750,000 से अधिक लोगों का नहीं हो सकता।
1951 की जनगणना के आंकड़ों ने दिखाया कि यदि भारत को 500 सीटों की सीमा के भीतर रहना है, तो कई निर्वाचन क्षेत्रों को 750,000 की आबादी से काफी बड़ा बनाना होगा।
उदाहरण के लिए: मान लीजिए एक राज्य की आबादी 30 मिलियन (3 करोड़) है।
- 750,000 की सीमा (नियम B) के अनुसार: राज्य को कम से कम (30,000,000 / 750,000) = 40 सीटें मिलनी चाहिए।
- यदि जनसंख्या बढ़कर 40 मिलियन (4 करोड़) हो जाए: तो नियम B के अनुसार, राज्य को कम से कम (40,000,000 / 750,000) = 53.33, यानी 54 सीटें मिलनी चाहिए।
जैसे-जैसे सभी राज्यों में जनसंख्या बढ़ी, 750,000 के इस अनुपात को बनाए रखने पर लोकसभा की कुल सीटों की संख्या 500 की ऊपरी सीमा को पार कर जाती। दूसरी ओर, यदि सरकार 500 सीटों की सीमा को बनाए रखती, तो उसे 750,000 वाले नियम को तोड़ना पड़ता।
संक्षेप में, 1951 की जनगणना के बाद, अनुच्छेद 81(1)(a) (500 सीटों की सीमा) और अनुच्छेद 81(1)(b) (750,000 प्रति सीट की सीमा) का एक साथ पालन करना गणितीय रूप से असंभव हो गया था।
5. दूसरे संशोधन की आवश्यकता क्यों पड़ी?
दूसरा संशोधन इसी संवैधानिक और तार्किक गतिरोध को तोड़ने के लिए आवश्यक था। सरकार को परिसीमन आयोग को अपना काम करने की अनुमति देने के लिए एक रास्ता खोजना था।
सरकार के पास दो विकल्प थे:
- लोकसभा की 500 सीटों की ऊपरी सीमा को हटा दें (या बढ़ा दें)।
- प्रति सीट 750,000 जनसंख्या की कठोर सीमा को हटा दें।
संसद ने दूसरा विकल्प चुना। यह महसूस किया गया कि लोकसभा का आकार (500) बढ़ाना एक अच्छा विचार नहीं था। इसके बजाय, यह अधिक तार्किक था कि निर्वाचन क्षेत्रों को जनसंख्या के साथ बड़ा होने दिया जाए। यह माना गया कि 500 सदस्यों की एक निश्चित सीमा को बनाए रखना, और फिर उस सीमा के भीतर जनसंख्या को आनुपातिक रूप से समायोजित करना अधिक व्यावहारिक था, भले ही इसका मतलब यह हो कि एक सांसद अब 750,000 से अधिक लोगों का प्रतिनिधित्व करेगा।
इसलिए, इस तकनीकी बाधा को दूर करने के लिए, अनुच्छेद 81(1)(b) में संशोधन करने का निर्णय लिया गया।
6. प्रस्ताव और पारित होने की प्रक्रिया
इस संशोधन को लागू करने की प्रक्रिया पहले आम चुनाव के तुरंत बाद शुरू हुई।
- विधेयक का नाम: संविधान (दूसरा संशोधन) विधेयक, 1952 [Constitution (Second Amendment) Bill, 1952]।
- द्वारा पेश किया गया: इस विधेयक को तत्कालीन कानून मंत्री, श्री सी.सी. बिस्वास (C.C. Biswas) द्वारा पेश किया गया था।
- लोकसभा द्वारा पारित: 15 दिसंबर 1952
- राज्यसभा द्वारा पारित: 19 दिसंबर 1952
चूंकि यह संशोधन अनुच्छेद 368 के तहत एक सामान्य संशोधन था और संघीय ढांचे (राज्यों के प्रतिनिधित्व) को सीधे तौर पर प्रभावित नहीं करता था, इसलिए इसे राज्यों के अनुसमर्थन की आवश्यकता नहीं थी।
- राष्ट्रपति की स्वीकृति: 1 मई 1953 (राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा)।
- लागू होने की तिथि: 1 मई 1953।
इन्हें भी जानें:
7. संशोधन के प्रमुख प्रावधान: अनुच्छेद 81(1)(b) में बदलाव
दूसरा संविधान संशोधन बहुत संक्षिप्त और सटीक था। इसने अनुच्छेद 81(1)(b) में केवल कुछ शब्दों को हटाया।
- मूल पाठ (Original Text): "...राज्यों को निर्वाचन क्षेत्रों में इस तरह विभाजित किया जाएगा कि प्रत्येक 750,000 की आबादी के लिए एक सदस्य से कम नहीं होगा और प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में जनसंख्या..."
- संशोधन (Amendment): संशोधन ने बस इन शब्दों को हटा दिया: "और प्रत्येक 750,000 की आबादी के लिए एक सदस्य से कम नहीं होगा" (and shall not be less than one member for every 750,000 of the population)।
इस एक वाक्य को हटाने का मतलब यह था कि अब कोई संवैधानिक ऊपरी सीमा नहीं थी कि एक निर्वाचन क्षेत्र कितना बड़ा हो सकता है। 750,000 का आंकड़ा संविधान से पूरी तरह से हटा दिया गया था।
8. उद्देश्य और लक्ष्य: परिसीमन का मार्ग प्रशस्त करना
इस संशोधन का एकमात्र और स्पष्ट उद्देश्य था:
- परिसीमन को सक्षम बनाना: 1951 की जनगणना के आधार पर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन (Delimitation) के लिए कानूनी और संवैधानिक बाधा को दूर करना।
- व्यावहारिकता सुनिश्चित करना: संविधान को देश की बढ़ती जनसंख्या की जमीनी हकीकत के अनुकूल बनाना।
- लोकसभा के आकार को स्थिर रखना: लोकसभा के कुल आकार (500) को बढ़ाए बिना आनुपातिक प्रतिनिधित्व की अनुमति देना।
9. प्रभाव और परिणाम: लोकसभा सीटों का पुनर्गठन
दूसरे संशोधन का प्रभाव तात्कालिक और महत्वपूर्ण था:
- परिसीमन अधिनियम, 1952: इस संशोधन ने परिसीमन अधिनियम, 1952 (Delimitation Act, 1952) के लिए रास्ता साफ कर दिया। इस अधिनियम के तहत, 1951 की जनगणना के आधार पर पूरे भारत में संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से परिभाषित करने के लिए पहले परिसीमन आयोग का गठन किया गया।
- निर्वाचन क्षेत्रों का बड़ा आकार: इसका मतलब था कि अब संसदीय निर्वाचन क्षेत्र 750,000 की आबादी से बड़े हो सकते हैं। वास्तव में, आज (2025 में), भारत में कई निर्वाचन क्षेत्रों की आबादी 20 लाख (2 मिलियन) से भी अधिक है। यह केवल दूसरे संशोधन के कारण ही संभव हो पाया है।
- दूसरा आम चुनाव: इस परिसीमन प्रक्रिया के परिणामस्वरूप, 1957 का दूसरा आम चुनाव 1951 की जनगणना के आधार पर पुनर्गठित निर्वाचन क्षेत्रों पर हुआ।
10. आलोचना और संसदीय बहस
हालांकि यह संशोधन काफी हद तक तकनीकी था, लेकिन संसद में इस पर बहस हुई थी। कुछ सदस्यों ने चिंता व्यक्त की कि 750,000 की सीमा को हटाने से भविष्य में निर्वाचन क्षेत्र "बहुत बड़े" (unmanageably large) हो सकते हैं।
उनकी चिंता यह थी कि यदि एक निर्वाचन क्षेत्र बहुत बड़ा हो जाता है, तो एक सांसद (MP) के लिए अपने सभी मतदाताओं के साथ संपर्क बनाए रखना, उनकी समस्याओं को समझना और प्रभावी ढंग से उनका प्रतिनिधित्व करना मुश्किल हो जाएगा। यह "प्रतिनिधित्व की गुणवत्ता" (Quality of Representation) पर एक वैध चिंता थी।
हालांकि, तत्कालीन कानून मंत्री ने तर्क दिया कि यह समायोजन "अपरिहार्य" (unavoidable) था। उन्होंने आश्वासन दिया कि परिसीमन आयोग यह सुनिश्चित करेगा कि निर्वाचन क्षेत्र यथासंभव तार्किक और प्रबंधनीय हों, लेकिन संवैधानिक गतिरोध को समाप्त किया जाना चाहिए। अंततः, व्यावहारिकता की आवश्यकता बहस पर हावी रही और विधेयक को आसानी से पारित कर दिया गया।
11. ऐतिहासिक महत्व: संविधान का लचीलापन
दूसरे संविधान संशोधन का ऐतिहासिक महत्व इसकी सादगी में निहित है। इसने स्थापित किया कि भारतीय संविधान एक कठोर, स्थिर दस्तावेज नहीं था, बल्कि एक जीवंत दस्तावेज (living document) था जिसे बदलती वास्तविकताओं के अनुकूल बनाया जा सकता था।
- व्यावहारिक शासन: इसने दिखाया कि संविधान निर्माता, जो उस समय संसद का भी हिस्सा थे, सैद्धांतिक शुद्धता पर व्यावहारिक शासन को प्राथमिकता देने के इच्छुक थे।
- भविष्य की नींव: इसने भविष्य के सभी परिसीमनों के लिए आधार तैयार किया। हालांकि बाद के संशोधनों (जैसे 42वें और 84वें) ने जनसंख्या नियंत्रण को प्रोत्साहित करने के लिए परिसीमन को अस्थायी रूप से रोक दिया, लेकिन जिस मूल सिद्धांत पर वे काम करते हैं - यानी, सीटों की एक निश्चित संख्या के भीतर बड़े निर्वाचन क्षेत्रों को समायोजित करना - वह दूसरे संशोधन द्वारा ही संभव बनाया गया था।
12. सारांश तालिका
| शीर्षक | विवरण |
|---|---|
| संशोधन संख्या | दूसरा संविधान संशोधन अधिनियम |
| वर्ष | 1952 (संसद द्वारा पारित) |
| लागू होने की तिथि | 1 मई 1953 |
| प्रधानमंत्री | श्री जवाहरलाल नेहरू |
| राष्ट्रपति | डॉ. राजेंद्र प्रसाद |
| मुख्य उद्देश्य | लोकसभा सीटों के परिसीमन के लिए जनसंख्या अनुपात की ऊपरी सीमा को हटाना। |
| प्रमुख बदलाव |
|
13. निष्कर्ष
भारतीय संविधान का दूसरा संशोधन, 1952, इस बात का एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे एक युवा राष्ट्र ने अपने संस्थापक दस्तावेज को व्यावहारिक चुनौतियों के अनुकूल बनाया। यह कोई ग्लैमरस संशोधन नहीं था, लेकिन यह लोकतांत्रिक मशीनरी को चालू रखने के लिए एक महत्वपूर्ण "रखरखाव" (maintenance) कार्य था। 1951 की जनगणना द्वारा उजागर की गई एक तार्किक असंभवता को हटाकर, इस संशोधन ने यह सुनिश्चित किया कि भारत के संसदीय लोकतंत्र का आधार, यानी निष्पक्ष और आनुपातिक प्रतिनिधित्व, बिना किसी संवैधानिक बाधा के जारी रह सके।
14. अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
प्रश्न 1: भारतीय संविधान का दूसरा संशोधन किससे संबंधित है?
उत्तर: दूसरा संशोधन (1952) मुख्य रूप से लोकसभा में प्रतिनिधित्व के पैमाने को समायोजित करने से संबंधित था। इसने अनुच्छेद 81 से उस खंड को हटा दिया जो यह अनिवार्य करता था कि प्रति सांसद 750,000 से अधिक लोग नहीं हो सकते।
प्रश्न 2: इस संशोधन की आवश्यकता क्यों पड़ी?
उत्तर: 1951 की जनगणना के आंकड़ों से पता चला कि यदि 750,000 की सीमा को बनाए रखा जाता, तो लोकसभा में सीटों की कुल संख्या 500 की संवैधानिक सीमा को पार कर जाती। यह संशोधन इस गणितीय और संवैधानिक गतिरोध को हल करने के लिए आवश्यक था।
प्रश्न 3: दूसरे संशोधन ने किस अनुच्छेद को बदला?
उत्तर: इसने अनुच्छेद 81(1)(b) को संशोधित किया। इसने उस हिस्से को हटा दिया जो निर्वाचन क्षेत्रों के आकार को 750,000 की आबादी तक सीमित करता था।
प्रश्न 4: 750,000 की सीमा क्या थी?
उत्तर: मूल संविधान में कहा गया था कि लोकसभा में "प्रत्येक 750,000 की आबादी के लिए एक सदस्य से कम नहीं होगा।" इसका प्रभावी रूप से मतलब था कि कोई भी संसदीय क्षेत्र 750,000 से अधिक लोगों का नहीं हो सकता। दूसरे संशोधन ने इस सीमा को हटा दिया।
प्रश्न 5: क्या इस संशोधन का मतलब यह था कि लोकसभा की सीटें बढ़ गईं?
उत्तर: नहीं, वास्तव में इसने उलटा किया। इसने 500 सीटों की कुल सीमा को बनाए रखना संभव बनाया, जबकि व्यक्तिगत निर्वाचन क्षेत्रों को 750,000 से अधिक बड़ा होने दिया। यह सीटों की संख्या को अनियंत्रित रूप से बढ़ने से रोकने के लिए किया गया था।
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