भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के 'गांधी युग' में, 1917 एक मील का पत्थर है। यह वह वर्ष था जब महात्मा गांधी, जो 1915 में भारत लौटे थे और एक वर्ष तक देश को समझने के लिए भ्रमण कर रहे थे, पहली बार सक्रिय राजनीति में उतरे। (जैसा कि हमने पिछली पोस्ट में पढ़ा) 1916 के लखनऊ समझौते में वे एक मूक दर्शक के तौर पर शामिल हुए थे, लेकिन वहीं उनकी मुलाकात एक ऐसे शख्स से हुई जो उन्हें बिहार के एक अंजान से गाँव 'चंपारण' तक खींच लाया।
वह शख्स थे राजकुमार शुक्ल, और वह मुद्दा था चंपारण के किसानों का अंग्रेजों द्वारा किया जा रहा क्रूर शोषण। चंपारण सत्याग्रह (Champaran Satyagraha 1917) सिर्फ एक किसान आंदोलन नहीं था; यह भारत की धरती पर 'सत्याग्रह' नामक अस्त्र का पहला सफल प्रयोग था। यह वह घटना थी जिसने मोहनदास करमचंद गांधी को 'महात्मा' के रूप में स्थापित किया और यह तय कर दिया कि भारत की आजादी की लड़ाई अब कुछ गिने-चुने बुद्धिजीवियों तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि इसमें देश का आम किसान और मजदूर भी शामिल होगा।
आखिर क्या थी चंपारण की वह समस्या जिसने गांधीजी को वहाँ जाने पर मजबूर किया? इसके अलावा जानेंगे की चंपारण सत्याग्रह क्यों हुआ ? क्या थी कुख्यात 'तिनकठिया प्रणाली'? और कैसे गांधीजी ने बिना किसी हिंसा के, अंग्रेजों को झुकने पर मजबूर कर दिया? आइए, गांधी के भारत में पहले सफल आंदोलन की इस अद्भुत कहानी को विस्तार से जानते हैं।
विषय सूची (Table of Contents)
- चंपारण की जड़: 'तिनकठिया प्रणाली' क्या थी?
- राजकुमार शुक्ल: एक अदम्य किसान का संघर्ष
- गांधी का चंपारण आगमन और पहली 'सविनय अवज्ञा'
- सत्याग्रह का तरीका: सबूत, गवाही और निर्भयता
- चंपारण जांच समिति का गठन और गांधी की जीत
- चंपारण सत्याग्रह का परिणाम और ऐतिहासिक महत्व
- निष्कर्ष: क्यों चंपारण एक 'टर्निंग प्वाइंट' था?
- अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
चंपारण की जड़: 'तिनकठिया प्रणाली' क्या थी?
चंपारण (जो आज बिहार का एक जिला है) में समस्या की जड़ में 'नील' (Indigo) की खेती और अंग्रेज बागान मालिक (जिन्हें 'निलहे' कहा जाता था) थे। यह समस्या एक सदी से भी अधिक पुरानी थी, लेकिन 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में यह असहनीय हो गई थी।
यहाँ के किसानों पर एक क्रूर व्यवस्था थोपी गई थी, जिसे 'तिनकठिया प्रणाली' (Tinkathia System) कहा जाता था।
- 'तिनकठिया' का अर्थ: यह नाम 'तीन कट्ठा' से निकला है। उस समय, एक 'बीघा' जमीन में 20 'कट्ठे' होते थे।
- कानूनी बाध्यता: इस प्रणाली के तहत, हर किसान को अपनी जमीन के प्रति बीघा पर 3 कट्ठे हिस्से में अनिवार्य रूप से नील की खेती करनी पड़ती थी। यानी, किसान अपनी सबसे उपजाऊ 15% जमीन पर अपनी मर्जी से धान या गेहूं नहीं उगा सकता था, उसे नील ही उगाना पड़ता था।
- शोषण का चक्र: नील की खेती बेहद थका देने वाली थी और यह जमीन की उर्वरता को नष्ट कर देती थी। अंग्रेज बागान मालिक किसानों को नील की बहुत कम कीमत देते थे, जो अक्सर बाजार भाव से भी कम होती थी। किसान इस अनुबंध से बंधे हुए थे और निकल नहीं सकते थे।
समस्या तब और गहरी हो गई, जब 1915 के आसपास जर्मनी में सिंथेटिक (कृत्रिम) डाई का आविष्कार हो गया। इस रासायनिक रंग के आने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय नील की मांग लगभग खत्म हो गई।
अब अंग्रेज बागान मालिकों के लिए नील का व्यापार घाटे का सौदा बन गया। लेकिन वे किसानों को मुक्त करने के बजाय, इस घाटे की भरपाई भी उन्हीं से करना चाहते थे। उन्होंने किसानों से कहा कि अगर वे 'तिनकठिया प्रणाली' से मुक्त होना चाहते हैं, तो उन्हें इसके बदले भारी लगान और 'तवान' (एकमुश्त जुर्माना) देना होगा। जो किसान पहले से ही कर्ज में डूबे थे, उनके लिए यह 'करो या मरो' वाली स्थिति थी।
राजकुमार शुक्ल: एक अदम्य किसान का संघर्ष
चंपारण के किसानों ने इस शोषण के खिलाफ कई बार आवाज उठाई, लेकिन उनकी आवाज दबा दी गई। ऐसे में, चंपारण के मुरली भरहवा गाँव के एक किसान राजकुमार शुक्ल ने इस अन्याय के खिलाफ लड़ने की ठानी। वे एक साधारण किसान थे, लेकिन उनकी इच्छाशक्ति असाधारण थी।
उन्हें किसी ने बताया कि कांग्रेस के नेता उनकी मदद कर सकते हैं। शुक्ल जी 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में पहुँचे। यहीं पर उन्होंने पहली बार महात्मा गांधी को देखा और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। गांधीजी उस समय तक चंपारण का नाम भी नहीं जानते थे। उन्होंने शुक्ल जी को टाल दिया।
लेकिन राजकुमार शुक्ल ने हार नहीं मानी।
- जब गांधीजी लखनऊ से कानपुर गए, तो शुक्ल जी वहाँ पहुँच गए।
- जब गांधीजी अपने साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) लौटे, तो शुक्ल जी वहाँ भी आ धमके।
- अंत में, गांधीजी ने शुक्ल जी की लगन और दृढ़ता को देखकर कहा, "ठीक है, मैं कलकत्ता (अब कोलकाता) जा रहा हूँ, तुम वहाँ आकर मुझसे मिलो और मुझे चंपारण ले चलो।"
राजकुमार शुक्ल कलकत्ता पहुँचे और गांधीजी के वहाँ से निकलने का इंतजार किया। अंततः, 10 अप्रैल 1917 को महात्मा गांधी, राजकुमार शुक्ल के साथ पटना पहुँचे।
गांधी का चंपारण आगमन और पहली 'सविनय अवज्ञा'
गांधीजी का पटना पहुँचना और फिर मुजफ्फरपुर होते हुए चंपारण की धरती पर कदम रखना, ब्रिटिश हुकूमत के लिए खतरे की घंटी थी। गांधीजी स्थिति को समझने के लिए मोतिहारी पहुँचे।
जैसे ही वे किसानों से मिलने के लिए निकले, ब्रिटिश जिला मजिस्ट्रेट ने उन्हें तुरंत 'चंपारण जिला छोड़ने' का नोटिस थमा दिया। अंग्रेजों को लगा कि यह कोई आम नेता है, जो नोटिस से डरकर वापस चला जाएगा।
लेकिन गांधीजी ने जो जवाब दिया, उसने भारत में एक नए तरह के प्रतिरोध की नींव रखी। उन्होंने नोटिस पर लिखा:
"मैं इस आदेश को मानने से इंकार करता हूँ... मैं यहाँ के किसानों की मदद करने के अपने कर्तव्य से बंधा हूँ और इसके लिए मैं कोई भी दंड भुगतने को तैयार हूँ।"
यह भारत में 'सविनय अवज्ञा' (Civil Disobedience) का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन था। गांधीजी ने कानून तोड़ा, लेकिन विनम्रता और दृढ़ता के साथ। अगले दिन गांधीजी को अदालत में पेश होना था।
जब गांधीजी अदालत पहुँचे, तो हजारों किसानों की भीड़ ने अदालत को घेर लिया। यह एक अभूतपूर्व दृश्य था। अंग्रेज अधिकारी इस जन-समर्थन को देखकर घबरा गए। वे समझ नहीं पा रहे थे कि इस 'फकीर' जैसे दिखने वाले आदमी से कैसे निपटा जाए। अंततः, सरकार को शर्मिंदा होकर गांधीजी पर से मुकदमा वापस लेना पड़ा। यह गांधी की, सत्याग्रह की और चंपारण के किसानों की पहली और बड़ी नैतिक जीत थी।
सत्याग्रह का तरीका: सबूत, गवाही और निर्भयता
मुकदमा वापस होने के बाद, गांधीजी ने अपना असली काम शुरू किया। उनका तरीका किसी भी अन्य नेता से बिल्कुल अलग था।
1. जांच और सबूत इकट्ठा करना: गांधीजी ने भाषणबाजी या प्रदर्शन करने के बजाय, तथ्यों को इकट्ठा करने पर जोर दिया। उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर किसानों के बयान दर्ज करने का काम शुरू किया।
2. नेताओं की टीम: इस काम में उन्हें बिहार के कई युवा और प्रतिभाशाली वकीलों का साथ मिला, जिन्होंने अपना आरामदायक जीवन छोड़कर गांधी का अनुसरण किया। इनमें प्रमुख थे— डॉ. राजेंद्र प्रसाद (जो बाद में भारत के पहले राष्ट्रपति बने), आचार्य जे.बी. कृपलानी, ब्रजकिशोर प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा और महादेव देसाई।
3. निर्भयता का संचार: शुरुआत में किसान, अंग्रेज बागान मालिकों के डर से बयान देने से कतराते थे। लेकिन गांधीजी की उपस्थिति ने उनके भीतर से डर को निकाल दिया। हजारों की संख्या में किसान अपनी शिकायतें दर्ज कराने के लिए आने लगे। गांधीजी और उनकी टीम ने कुछ ही दिनों में 8,000 से अधिक किसानों के बयान दर्ज कर लिए।
यह पूरी प्रक्रिया ही एक 'सत्याग्रह' थी। किसानों का निर्भय होकर अपनी बात रखना, शोषण के खिलाफ शांतिपूर्ण तरीके से सबूत पेश करना, और दंड के लिए तैयार रहना—यही चंपारण सत्याग्रह का मूलमंत्र था।
चंपारण जांच समिति का गठन और गांधी की जीत
गांधीजी द्वारा इकट्ठे किए गए सबूतों का भंडार इतना बड़ा और अकाट्य था कि ब्रिटिश हुकूमत हिल गई। गवर्नर-जनरल (वायसराय) पर दबाव पड़ने लगा। अंत में, बिहार के लेफ्टिनेंट-गवर्नर, सर एडवर्ड गेट (Sir Edward Gait) ने गांधीजी को बातचीत के लिए बुलाया।
सरकार ने मामले की जांच के लिए जून 1917 में 'चंपारण एग्रेरियन कमेटी' (Champaran Agrarian Committee) नाम की एक जांच समिति का गठन किया।
यह गांधीजी की दूसरी बड़ी जीत थी कि सरकार ने उन्हें भी इस समिति का सदस्य बनाया। अब गांधीजी केवल एक आंदोलनकारी नहीं, बल्कि आधिकारिक जांचकर्ता बन गए थे।
गांधीजी ने समिति के सामने किसानों के शोषण के इतने पुख्ता सबूत रखे कि समिति के अन्य सदस्यों को भी मानना पड़ा कि 'तिनकठिया प्रणाली' अन्यायपूर्ण है।
परिणाम:
- समिति की सिफारिशों के आधार पर, 1918 में 'चंपारण एग्रेरियन एक्ट' (Champaran Agrarian Act) पारित किया गया।
- इस कानून के द्वारा, 100 साल से भी अधिक पुरानी 'तिनकठिया प्रणाली' को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया गया।
- किसानों से अवैध रूप से वसूले गए धन का 25% हिस्सा उन्हें वापस लौटाने पर सहमति बनी। (गांधीजी ने 25% पर इसलिए सहमति दी क्योंकि उनके लिए पैसा नहीं, बल्कि 'निलहों' का अपनी गलती मानना और प्रतिष्ठा का टूटना ज्यादा महत्वपूर्ण था)।
चंपारण सत्याग्रह का परिणाम और ऐतिहासिक महत्व
चंपारण सत्याग्रह का परिणाम केवल एक कानून को बदलने तक सीमित नहीं था। इसका महत्व बहुत गहरा और दूरगामी था:
- भारत में सत्याग्रह की पहली सफलता: इसने यह साबित कर दिया कि गांधीजी का 'सत्याग्रह' और 'अहिंसक प्रतिरोध' का तरीका केवल दक्षिण अफ्रीका में ही नहीं, बल्कि भारत में भी सफल हो सकता है।
- गांधी का राष्ट्रीय नेता के रूप में उदय: इस एक आंदोलन ने गांधीजी को पूरे भारत में एक जन-नेता के रूप में स्थापित कर दिया। वे अब केवल कांग्रेस के अभिजात वर्ग के नेता नहीं, बल्कि किसानों और गरीबों के 'महात्मा' बन गए थे।
- किसानों में जागृति: चंपारण ने भारत के किसानों को उनकी शक्ति का अहसास कराया। इसने दिखाया कि अगर वे एकजुट और निर्भय होकर लड़ें, तो वे सबसे शक्तिशाली सत्ता को भी झुका सकते हैं।
- भविष्य के नेताओं की नर्सरी: चंपारण सत्याग्रह ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद और आचार्य कृपलानी जैसे कई नेताओं को गांधीजी के साथ जोड़ा, जो आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख स्तंभ बने।
- आंदोलन की नई शैली: इसने भारतीय राजनीति को एक नई शैली दी—'सबूत आधारित प्रतिरोध'। यह आंदोलन भावनाओं पर नहीं, बल्कि तथ्यों और नैतिक बल पर लड़ा और जीता गया।
निष्कर्ष: क्यों चंपारण एक 'टर्निंग प्वाइंट' था?
1917 का चंपारण सत्याग्रह, 'गांधी युग' का सही मायनों में प्रस्थान बिंदु था। यह एक छोटा-सा स्थानीय आंदोलन था, लेकिन इसका प्रभाव राष्ट्रीय था। इसने उस राजनीतिक खालीपन को भर दिया, जो 1907 में कांग्रेस के विभाजन और 1916 के लखनऊ समझौते के बाद भी महसूस किया जा रहा था।
चंपारण ने गांधीजी को वह मंच दिया, जहाँ से वे भारतीय राजनीति की मुख्य धारा को हमेशा के लिए बदल सकते थे। यह एक 'ड्रेस रिहर्सल' थी, जिसने यह तय कर दिया कि भारत की आजादी की लड़ाई का अगला नायक कौन होगा और उसका हथियार क्या होगा। चंपारण की सफलता के बिना, शायद खेड़ा (1918) और अहमदाबाद (1918) के आंदोलन न होते, और न ही 1920 का विशाल 'असहयोग आंदोलन' उस रूप में खड़ा हो पाता, जैसा हम उसे जानते हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
प्रश्न 1: चंपारण सत्याग्रह कब और कहाँ हुआ?
उत्तर: चंपारण सत्याग्रह 1917 में बिहार के चंपारण जिले में हुआ था। इसकी शुरुआत महात्मा गांधी के 10 अप्रैल 1917 को चंपारण पहुँचने के साथ हुई।
प्रश्न 2: तिनकठिया प्रणाली क्या थी? (What was Tinkathia System?)
उत्तर: तिनकठिया प्रणाली एक अवैध व्यवस्था थी, जिसके तहत अंग्रेज बागान मालिक चंपारण के किसानों को उनकी जमीन के 3/20 हिस्से (यानी 20 कट्ठे में से 3 कट्ठे) पर अनिवार्य रूप से नील की खेती करने के लिए मजबूर करते थे और उसकी बहुत कम कीमत देते थे।
प्रश्न 3: महात्मा गांधी को चंपारण किसने बुलाया था?
उत्तर: महात्मा गांधी को चंपारण के ही एक किसान, श्री राजकुमार शुक्ल ने बुलाया था। वे 1916 में गांधीजी से लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में मिले और उन्हें चंपारण के किसानों की दुर्दशा से अवगत कराया।
प्रश्न 4: चंपारण सत्याग्रह को गांधी का भारत में पहला आंदोलन क्यों कहा जाता है?
उत्तर: हालांकि गांधीजी 1915 में भारत आ गए थे, लेकिन 1917 का चंपारण सत्याग्रह पहला बड़ा आंदोलन था, जिसका उन्होंने व्यक्तिगत रूप से नेतृत्व किया। यह भारत की धरती पर 'सत्याग्रह' और 'सविनय अवज्ञा' का पहला सफल प्रयोग था, इसलिए इसे भारत में उनका पहला सफल आंदोलन माना जाता है।
प्रश्न 5: चंपारण सत्याग्रह का मुख्य परिणाम क्या था?
उत्तर: इसका मुख्य परिणाम 'चंपारण एग्रेरियन एक्ट, 1918' का पारित होना था। इस कानून के द्वारा 'तिनकठिया प्रणाली' को समाप्त कर दिया गया और किसानों से वसूला गया अवैध पैसा (25%) उन्हें वापस दिलाया गया।
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