भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी में कई निर्णायक मोड़ आए, लेकिन 1916 का लखनऊ समझौता (Lucknow Pact 1916) एक ऐसी घटना थी जिसने कुछ समय के लिए ही सही, ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला दी थी। यह वह ऐतिहासिक क्षण था जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और ऑल इंडिया मुस्लिम लीग, जो उस समय के दो सबसे बड़े राजनीतिक दल थे, ने अपने मतभेदों को भुलाकर एक साथ आने का फैसला किया।
यह वह दौर था जब 1915 में महात्मा गांधी भारत लौट चुके थे और (जैसा कि हमने पिछली पोस्ट में पढ़ा) अपने राजनीतिक गुरु की सलाह पर भारत भ्रमण कर रहे थे। एक तरफ गांधी भारत की आत्मा को समझ रहे थे, वहीं दूसरी तरफ, लखनऊ में, राजनीति के दो बड़े दिग्गज—बाल गंगाधर तिलक और मोहम्मद अली जिन्ना—एक नई इबारत लिख रहे थे।
यह समझौता क्यों हुआ? इसके मुख्य प्रावधान क्या थे? और क्यों, हिन्दू-मुस्लिम एकता के इस सबसे बड़े प्रतीक को ही, कुछ इतिहासकार भारत के भविष्य के विभाजन का एक अनजाना कारण भी मानते हैं? आइए, 'गांधी युग' की इस महत्वपूर्ण घटना का गहराई से विश्लेषण करते हैं।
विषय सूची (Table of Contents)
- लखनऊ समझौता की पृष्ठभूमि: क्यों पड़ी एकता की जरूरत?
- कांग्रेस का एकीकरण: नरम दल और गरम दल का विलय
- समझौते के प्रमुख वास्तुकार: तिलक और जिन्ना
- लखनऊ समझौता 1916 के मुख्य प्रावधान क्या थे?
- पृथक निर्वाचक मंडल: एक विवादास्पद सहमति
- लखनऊ समझौता का महत्व और सकारात्मक प्रभाव
- समझौते की आलोचना और दीर्घकालिक परिणाम
- निष्कर्ष: एक अल्पकालिक जीत या रणनीतिक भूल?
- अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
लखनऊ समझौता की पृष्ठभूमि: क्यों पड़ी एकता की जरूरत?
1916 तक भारतीय राजनीति कई हिस्सों में बंटी हुई थी। इस समझौते की जरूरत क्यों पड़ी, इसे समझने के लिए हमें उस समय की तीन प्रमुख घटनाओं को देखना होगा:
- कांग्रेस का विभाजन (1907): 1907 के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस 'नरम दल' (Moderates) और 'गरम दल' (Extremists) में बंट गई थी। इस विभाजन ने कांग्रेस को राजनीतिक रूप से बहुत कमजोर कर दिया था।
- मुस्लिम लीग की स्थापना (1906): 1906 में मुस्लिम लीग का गठन हुआ, जिसका शुरुआती उद्देश्य मुसलमानों के हितों की रक्षा करना और ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी दिखाना था।
- मॉर्ले-मिंटो सुधार (1909): अंग्रेजों ने 'फूट डालो और राज करो' की नीति के तहत 1909 में मुस्लिम समुदाय के लिए 'पृथक निर्वाचक मंडल' (Separate Electorates) की व्यवस्था की। इसका मतलब था कि मुस्लिम सीटों के लिए केवल मुस्लिम मतदाता ही वोट कर सकते थे। कांग्रेस इसके सख्त खिलाफ थी।
हालांकि, 1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने के बाद हालात बदलने लगे। ब्रिटिश सरकार ने तुर्की (जो उस समय इस्लामी खलीफा का केंद्र था) के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया, जिससे भारतीय मुसलमान अंग्रेजों से नाराज हो गए। इसी बीच, मुस्लिम लीग में मोहम्मद अली जिन्ना जैसे युवा और राष्ट्रवादी नेताओं का प्रभाव बढ़ रहा था, जो मानते थे कि अंग्रेजों से रियायतें पाने के लिए कांग्रेस के साथ मिलकर काम करना जरूरी है।
कांग्रेस का एकीकरण: नरम दल और गरम दल का विलय
लखनऊ में 1916 में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के समझौते से पहले, खुद कांग्रेस के भीतर एक बड़ा समझौता हुआ। 1907 से कांग्रेस से बाहर चल रहे 'गरम दल' के प्रमुख नेता बाल गंगाधर तिलक ने 1914 में जेल से रिहा होने के बाद वापस कांग्रेस में शामिल होने का प्रयास किया।
दिसंबर 1916 में, कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन लखनऊ में हुआ। इस अधिवेशन के अध्यक्ष अंबिका चरण मजूमदार थे। यह अधिवेशन दो कारणों से ऐतिहासिक था:
- पहला: 'गरम दल' के नेताओं (बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेंट) का कांग्रेस में 9 साल बाद भव्य स्वागत हुआ। नरम दल और गरम दल फिर से एक हो गए।
- दूसरा: इसी अधिवेशन के समानांतर मुस्लिम लीग ने भी अपना अधिवेशन लखनऊ में ही रखा, ताकि दोनों दल एक साझा राजनीतिक कार्यक्रम पर सहमत हो सकें।
कांग्रेस का यह पुनर्मिलन लखनऊ समझौते के लिए पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम था।
समझौते के प्रमुख वास्तुकार: तिलक और जिन्ना
इस ऐतिहासिक समझौते के पीछे दो प्रमुख नेताओं का हाथ था।
बाल गंगाधर तिलक: 'गरम दल' के नेता होने के बावजूद, तिलक ने बड़ी राजनीतिक दूरदर्शिता दिखाई। वे समझ गए थे कि 'स्वराज' (Self-rule) हासिल करने के लिए ब्रिटिश सरकार पर अधिकतम दबाव बनाना जरूरी है, और यह दबाव केवल हिन्दू-मुस्लिम एकता से ही संभव था। इसलिए, उन्होंने स्वराज के बड़े लक्ष्य के लिए मुस्लिम लीग की 'पृथक निर्वाचक मंडल' की मांग को स्वीकार करने पर सहमति जताई।
मोहम्मद अली जिन्ना: यह विडंबना ही है कि जो जिन्ना बाद में पाकिस्तान के संस्थापक बने, वे 1916 में 'हिन्दू-मुस्लिम एकता के राजदूत' कहे जाते थे। जिन्ना उस समय एकमात्र ऐसे बड़े नेता थे जो कांग्रेस और मुस्लिम लीग, दोनों के सदस्य थे। उन्होंने लीग के भीतर के रूढ़िवादी तत्वों को दरकिनार किया और कांग्रेस के साथ एक संयुक्त मांग पत्र तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
लखनऊ समझौता 1916 के मुख्य प्रावधान क्या थे?
कांग्रेस और मुस्लिम लीग, दोनों ने मिलकर ब्रिटिश सरकार के सामने 'संयुक्त संवैधानिक सुधारों की योजना' रखी। इस योजना के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे:
- स्व-शासन (Swaraj): दोनों दलों ने एक सुर में मांग की कि ब्रिटिश सरकार भारत को जल्द से जल्द 'स्व-शासन' (Self-government) प्रदान करे।
- प्रांतीय परिषदों में विस्तार: यह मांग की गई कि प्रांतीय विधान परिषदों का विस्तार किया जाए और उनमें निर्वाचित भारतीयों की संख्या बढ़ाई जाए।
- वायसराय की कार्यकारिणी: मांग की गई कि गवर्नर-जनरल (वायसराय) की कार्यकारिणी परिषद में कम से कम आधे सदस्य भारतीय हों।
- न्यायपालिका का पृथक्करण: प्रशासन (Executive) को न्यायपालिका (Judiciary) से अलग करने की मांग की गई, ताकि शक्तियों का दुरुपयोग न हो।
- अल्पसंख्यक संरक्षण: एक महत्वपूर्ण प्रावधान यह था कि यदि किसी परिषद में कोई प्रस्ताव किसी एक समुदाय (जैसे हिन्दू या मुस्लिम) को प्रभावित करता है, और उस समुदाय के तीन-चौथाई (3/4) सदस्य उस प्रस्ताव का विरोध करते हैं, तो उसे पारित नहीं किया जाएगा।
- पृथक निर्वाचक मंडल की स्वीकृति: यह समझौते का सबसे महत्वपूर्ण और विवादास्पद बिंदु था, जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे।
पृथक निर्वाचक मंडल: एक विवादास्पद सहमति
'पृथक निर्वाचक मंडल' (Separate Electorates) वह व्यवस्था थी जिसे अंग्रेजों ने 1909 में लागू किया था। लखनऊ समझौते में, कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की यह प्रमुख मांग स्वीकार कर ली।
इसका मतलब यह था कि कांग्रेस ने इस सिद्धांत को मान लिया कि मुसलमानों के राजनीतिक हित हिंदुओं से अलग हैं और उनकी रक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की जरूरत है।
इसके अलावा, प्रांतीय परिषदों में मुसलमानों के लिए सीटें आरक्षित की गईं।
- मुस्लिम-अल्पसंख्यक प्रांतों में: जिन प्रांतों में मुसलमान अल्पसंख्यक थे (जैसे संयुक्त प्रांत, बिहार), वहाँ उन्हें उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक सीटें दी गईं (इसे 'वेटेज' कहा गया)।
- मुस्लिम-बहुसंख्यक प्रांतों में: जिन प्रांतों में मुसलमान बहुसंख्यक थे (जैसे पंजाब और बंगाल), वहाँ उन्हें उनकी जनसंख्या के अनुपात से कम सीटें दी गईं।
उदाहरण के लिए, संयुक्त प्रांत (U.P.) में मुस्लिम आबादी लगभग 14% थी, लेकिन उन्हें 30% सीटें दी गईं। वहीं, बंगाल में मुस्लिम आबादी 52% से अधिक थी, लेकिन उन्हें केवल 40% सीटें मिलीं।
लखनऊ समझौता का महत्व और सकारात्मक प्रभाव
लखनऊ समझौते का तात्कालिक महत्व बहुत बड़ा था।
- हिन्दू-मुस्लिम एकता: यह ब्रिटिश काल में हिन्दू-मुस्लिम राजनीतिक एकता का चरम बिंदु था। इसने पूरे देश में एक अभूतपूर्व उत्साह का संचार किया।
- ब्रिटिश सरकार पर दबाव: जब अंग्रेजों ने देखा कि नरम दल, गरम दल और मुस्लिम लीग—सभी एक मंच पर आ गए हैं, तो वे दबाव में आ गए। उन्हें लगा कि अब केवल दमन से काम नहीं चलेगा।
- मोंटेग्यू घोषणा (1917): इसी संयुक्त दबाव का परिणाम था कि ब्रिटिश सरकार को अगस्त 1917 में 'मोंटेग्यू घोषणा' करनी पड़ी। इसमें पहली बार आधिकारिक तौर पर कहा गया कि भारत में 'क्रमिक स्व-शासन' (Responsible Government) लागू करना ब्रिटिश नीति का लक्ष्य है।
- राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूती: कांग्रेस के दोनों धड़ों के एक होने और लीग के साथ आने से राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई ऊर्जा मिली, जिसने आगे चलकर गांधीजी के असहयोग आंदोलन (1920-22) की नींव रखी।
समझौते की आलोचना और दीर्घकालिक परिणाम
भले ही लखनऊ समझौता एक बड़ी तात्कालिक जीत थी, लेकिन कई इतिहासकार और विश्लेषक इसकी दीर्घकालिक परिणामों के लिए आलोचना करते हैं।
- सांप्रदायिकता को वैधानिकता: आलोचकों का तर्क है कि 'पृथक निर्वाचक मंडल' को स्वीकार करके कांग्रेस ने अनजाने में उस सांप्रदायिक राजनीति को वैधानिक मान्यता दे दी, जिसे अंग्रेज बढ़ावा दे रहे थे।
- दो-राष्ट्र सिद्धांत को बल: यह तर्क दिया जाता है कि इस समझौते ने इस विचार को मजबूत किया कि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राजनीतिक इकाइयाँ हैं, जिनके हित अलग-अलग हैं। इसने अनजाने में 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' (Two-Nation Theory) को बढ़ावा दिया।
- नेहरू रिपोर्ट में टकराव: इस समझौते का नकारात्मक प्रभाव 1928 में तब दिखा, जब नेहरू रिपोर्ट ने 'पृथक निर्वाचक मंडल' को खारिज कर दिया। इससे मोहम्मद अली जिन्ना नाराज हो गए और उन्होंने अपना अलग रास्ता अख्तियार कर लिया, जो अंततः पाकिस्तान की मांग तक ले गया।
- अल्पकालिक एकता: यह एकता ज्यादा समय तक नहीं टिकी। 1922 में असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन की समाप्ति के बाद, यह गठबंधन टूट गया और सांप्रदायिक दंगे फिर से शुरू हो गए।
निष्कर्ष: एक अल्पकालिक जीत या रणनीतिक भूल?
1916 का लखनऊ समझौता भारतीय इतिहास का एक दोहरा अध्याय है। एक तरफ, यह तिलक और जिन्ना जैसे नेताओं की राजनीतिक परिपक्वता का प्रतीक था, जिन्होंने 'स्वराज' के बड़े लक्ष्य के लिए एकजुट होकर ब्रिटिश राज को चुनौती दी। इसने राष्ट्रीय आंदोलन में नई जान फूंकी और यह साबित कर दिया कि भारतीय एकजुट हो सकते हैं।
दूसरी तरफ, 'पृथक निर्वाचक मंडल' को स्वीकार करना एक ऐसी रणनीतिक भूल साबित हुई, जिसने भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता के जहर को और गहरा कर दिया। इसने भविष्य के संविधान निर्माण की प्रक्रिया को और जटिल बना दिया।
यह समझौता हमें सिखाता है कि एकता महत्वपूर्ण है, लेकिन यह एकता किन सिद्धांतों पर आधारित है, यह उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
प्रश्न 1: लखनऊ समझौता कब और कहाँ हुआ?
उत्तर: लखनऊ समझौता दिसंबर 1916 में लखनऊ (उत्तर प्रदेश) में हुआ। यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच उनके वार्षिक अधिवेशनों के दौरान हुआ, जो एक ही समय पर एक ही शहर में आयोजित किए गए थे।
प्रश्न 2: 1916 के कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर: 1916 के ऐतिहासिक लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष अंबिका चरण मजूमदार (A.C. Mazumdar) थे।
प्रश्न 3: लखनऊ समझौता का मुख्य बिंदु क्या था?
उत्तर: इसका सबसे मुख्य बिंदु यह था कि कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की 'पृथक निर्वाचक मंडल' (Separate Electorates) की मांग को स्वीकार कर लिया, जिसके बदले में दोनों दलों ने ब्रिटिश सरकार से एक साथ मिलकर 'स्व-शासन' (Swaraj) की मांग की।
प्रश्न 4: लखनऊ समझौते में तिलक और जिन्ना की क्या भूमिका थी?
उत्तर: बाल गंगाधर तिलक (कांग्रेस) और मोहम्मद अली जिन्ना (कांग्रेस और लीग दोनों के सदस्य) इस समझौते के मुख्य सूत्रधार थे। तिलक ने कांग्रेस को और जिन्ना ने मुस्लिम लीग को इस समझौते के लिए राजी करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रश्न 5: क्या लखनऊ समझौता सफल रहा?
उत्तर: यह अल्पकालिक रूप से सफल रहा। इसने 1917 से 1922 (असहयोग-खिलाफत आंदोलन) तक अभूतपूर्व हिन्दू-मुस्लिम एकता पैदा की और अंग्रेजों पर दबाव डाला। लेकिन दीर्घकालिक रूप में, यह विफल रहा क्योंकि इसने सांप्रदायिक राजनीति को वैधता प्रदान की, जो अंततः भारत के विभाजन का एक कारण बनी।
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