4th संशोधन (1955): संपत्ति का अधिकार | 4th Amendment

1. परिचय: संपत्ति के अधिकार पर राज्य का नियंत्रण

भारतीय संविधान का चौथा संशोधन अधिनियम, 1955 (4th Constitutional Amendment Act, 1955), भारत के संवैधानिक इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था। यह संशोधन मुख्य रूप से संपत्ति के अधिकारों और भूमि सुधारों से संबंधित था। इसका उद्देश्य न्यायपालिका और संसद के बीच 'मुआवजे' (Compensation) के मुद्दे पर चल रहे संघर्ष को समाप्त करना और सरकार को सामाजिक कल्याण की योजनाओं को लागू करने के लिए अधिक शक्तियाँ प्रदान करना था।

4th संशोधन (1955): संपत्ति का अधिकार | 4th Amendment



यह संशोधन मुख्यतः पहले संशोधन (1951) द्वारा शुरू किए गए सुधारों को आगे बढ़ाने और न्यायिक बाधाओं को दूर करने के लिए लाया गया था। इसने यह स्थापित किया कि सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए अधिग्रहित संपत्ति के मुआवजे की मात्रा तय करने का अधिकार संसद के पास है, न कि अदालतों के पास।

2. पृष्ठभूमि और ऐतिहासिक संदर्भ

1950 के दशक में सरकार द्वारा जमींदारी प्रथा समाप्त करने और भूमि सुधार कार्यक्रमों को लागू करने के प्रयास किए जा रहे थे। हालांकि, इन सुधारों को अनुच्छेद 31 (संपत्ति का अधिकार) के तहत न्यायालयों में चुनौती दी जा रही थी।

सुप्रीम कोर्ट ने कुछ मामलों (जैसे बेला बनर्जी केस) में यह व्याख्या दी कि 'मुआवजा' शब्द का अर्थ 'पूर्ण बाजार मूल्य' (Full Market Value) है। सरकार के लिए इतने बड़े पैमाने पर भूमि सुधारों के लिए बाजार मूल्य पर मुआवजा देना आर्थिक रूप से संभव नहीं था। इसलिए, इन न्यायिक व्याख्याओं को बदलने और अपनी समाजवादी नीतियों को लागू करने के लिए सरकार ने चौथे संशोधन का मार्ग चुना।

3. प्रस्ताव और पारित होने की प्रक्रिया

यह संशोधन विधेयक संसद में पेश किया गया ताकि निजी संपत्ति के अधिग्रहण के संबंध में राज्य की शक्ति को स्पष्ट और मजबूत किया जा सके।

  • विधेयक का नाम: संविधान (चौथा संशोधन) विधेयक, 1954
  • प्रस्ताव किसने रखा: पंडित जवाहरलाल नेहरू (तत्कालीन प्रधानमंत्री)
  • राष्ट्रपति की स्वीकृति: 27 अप्रैल 1955
  • लागू होने की तिथि: 27 अप्रैल 1955

4. संशोधन के प्रमुख प्रावधान

चौथे संशोधन ने संविधान के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण अनुच्छेदों में बदलाव किया:

  • अनुच्छेद 31(2) में संशोधन: यह स्पष्ट किया गया कि यदि राज्य किसी संपत्ति का अनिवार्य अधिग्रहण करता है, तो उसके लिए दिए जाने वाले मुआवजे की मात्रा (amount) विधायिका द्वारा तय की जाएगी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह जोड़ी गई कि मुआवजे की 'पर्याप्तता' (adequacy) को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती।
  • अनुच्छेद 31A का विस्तार: पहले संशोधन द्वारा जोड़े गए इस अनुच्छेद का दायरा बढ़ाया गया। अब राज्य न केवल कृषि भूमि सुधार, बल्कि निगमों के प्रबंधन, खनिज तेल की खोज, और खनन पट्टों (mining leases) में भी हस्तक्षेप कर सकता था।
  • अनुच्छेद 305 में संशोधन: इसे संशोधित किया गया ताकि व्यापार और वाणिज्य में 'राज्य के एकाधिकार' (State Monopoly) को चुनौती न दी जा सके।
  • नौंवीं अनुसूची (Ninth Schedule): इस अनुसूची में 7 और नए कानूनों (प्रविष्टि 14 से 20) को शामिल किया गया ताकि उन्हें न्यायिक समीक्षा से पूर्ण सुरक्षा मिल सके।

5. उद्देश्य और लक्ष्य

इस संशोधन को लाने के पीछे सरकार के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे:

  • न्यायिक बाधाओं को दूर करना: संपत्ति के मुआवजे के मुद्दे पर अदालतों के हस्तक्षेप को सीमित करना।
  • समाजवादी ढांचा: 'समाजवादी समाज की रचना' (Socialist pattern of society) के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राज्य के हाथ मजबूत करना।
  • आर्थिक सुधार: व्यापार और वाणिज्य के कुछ क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण करने का मार्ग प्रशस्त करना।

6. प्रभाव और परिणाम

चौथे संविधान संशोधन के दूरगामी प्रभाव हुए:

  • भूमि सुधारों में तेजी: सरकार को भूमि सुधार और गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की शक्ति मिली।
  • निजी संपत्ति का कमजोर होना: नागरिकों के संपत्ति के अधिकार की सुरक्षा कम हो गई, क्योंकि अब वे मुआवजे की कम राशि के खिलाफ कोर्ट नहीं जा सकते थे।
  • राज्य नियंत्रण: व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में राज्य के प्रवेश और एकाधिकार को संवैधानिक वैधता मिली।

7. न्यायिक व्याख्या और आलोचना

इस संशोधन के बाद सुप्रीम कोर्ट और संसद के बीच टकराव जारी रहा। हालांकि संशोधन ने कहा कि मुआवजे की पर्याप्तता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, लेकिन बाद में वज्रावेलु मुदलियार (1965) और बैंक नेशनलाइजेशन केस (1970) में सुप्रीम कोर्ट ने फिर कहा कि मुआवजा "काल्पनिक" (Illushory) नहीं होना चाहिए, बल्कि उचित होना चाहिए।

विपक्ष और कई विधिवेत्ताओं ने इसकी आलोचना करते हुए कहा कि यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन है और यह संविधान के लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करता है।

8. ऐतिहासिक महत्व

भारतीय संवैधानिक विकास में चौथे संविधान संशोधन का महत्व इसलिए है क्योंकि:

  • इसने स्पष्ट कर दिया कि सामाजिक कल्याण के लिए व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार को सीमित किया जा सकता है।
  • यह केशवानंद भारती केस (1973) जैसे भविष्य के बड़े संवैधानिक विवादों की पृष्ठभूमि बना, जिसमें अंततः 'मूल ढांचे' का सिद्धांत दिया गया।

9. सारांश तालिका

शीर्षक विवरण
संशोधन संख्या 4था संविधान संशोधन अधिनियम
वर्ष 1955
लागू होने की तिथि 27 अप्रैल 1955
प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू
मुख्य उद्देश्य संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण के लिए मुआवजे की न्यायिक समीक्षा को सीमित करना।
प्रमुख बदलाव
  • अनुच्छेद 31(2), 31A, और 305 में संशोधन।
  • नौंवीं अनुसूची में 7 नए अधिनियम जोड़े गए।

10. निष्कर्ष

भारतीय संविधान का चौथा संशोधन एक ऐतिहासिक कदम था जो भारत को सामाजिक और आर्थिक न्याय की ओर ले जाने के उद्देश्य से किया गया। इसने यह सुनिश्चित किया कि राज्य के नीति निदेशक तत्वों (DPSPs) को लागू करने के लिए मौलिक अधिकारों (विशेषकर संपत्ति के अधिकार) पर उचित प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। यह संशोधन उस दिशा में एक बड़ा प्रयास था जहाँ राज्य, नीतियों को ज़मीन पर लागू करने में ज्यादा सक्षम हो सके।

11. अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

प्रश्न 1: चौथा संविधान संशोधन कब पारित हुआ था?

उत्तर: चौथा संविधान संशोधन अधिनियम 1955 में पारित हुआ था।

प्रश्न 2: चौथे संशोधन का मुख्य उद्देश्य क्या था?

उत्तर: इसका मुख्य उद्देश्य संपत्ति के अधिग्रहण के बदले दिए जाने वाले मुआवजे की 'पर्याप्तता' को अदालती जांच से बाहर रखना और भूमि सुधार कानूनों को संरक्षण देना था।

प्रश्न 3: इस संशोधन द्वारा किन अनुच्छेदों में परिवर्तन हुआ?

उत्तर: इस संशोधन ने मुख्य रूप से अनुच्छेद 31(2), अनुच्छेद 31A, और अनुच्छेद 305 में संशोधन किया और नौंवीं अनुसूची का विस्तार किया।

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